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४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा क्वचिदग्भिागैकदेशमवलम्ब्य तदुत्पत्त्युपलंभात् , क्वचिद् गौरिव गवय इत्यन्यथा वा एकवस्त्ववलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वंतरविषयप्रत्ययोत्पत्युपलंभात् , क्वचिदर्वाग्भागग्रहणकाल एव परभागग्रहणोपलंभात् । न चायमसिद्धः, वस्तुविषयप्रत्ययोत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः । न चार्वाग्भागमात्रं वस्तु, तत एव अर्थक्रियाकर्तृत्वानुपलंभात् । क्वचिदेकवर्णश्रवणकाल एव अभिधास्यमानवर्णविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलंभात् , क्वचित्स्वभ्यस्तप्रदेशे एकस्पर्शोपलंभकाल एव स्पर्शान्तरविशिष्टतद्वस्तुप्रदेशांतरोपलंभात् , क्वचिदेकरसग्रहणकाल एव तत्प्रदेशासन्निहितरसांतरविशिष्टवस्तूपलंभात् । निःसृतमित्यपरे पठन्ति । तैरुपमाप्रत्यय एक एव संगृहीतः स्यात् , ततोऽसौ नेष्यते'। एतत्प्रतिपक्षो निःसृतप्रत्ययः, तथा क्वचित्कदाचिदुपलभ्यते च वस्त्वेकदेशे आलम्बनीभूते प्रत्ययस्य वृत्तिः। इन्द्रियप्रतिनियतगुणविशिष्टवस्तूपलंभकाल एव तदिन्द्रियानियतगुणविशिष्टस्य
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अर्वाग्भागके एकदेशका अवलम्बन करके उक्त प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है, कहींपर 'गायके समान गवय होता है' इस प्रकार अथवा अन्य प्रकारसे एक वस्तुका अवलम्बन करके वहां समीपमें न रहनेवाली अन्य वस्तुको विषय करनेवाले प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है, कहींपर अर्वाग्भागके ग्रहणकालमें ही परभागका ग्रहण पाया जाता है। और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, अन्यथा वस्तुविषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति बन नहीं सकती। तथा अर्वाग्भाग मात्र वस्तु हो नहीं सकती, क्योंकि, उतने मात्रसे अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता। कहींपर एक वर्णके श्रवणकालमें ही आगे उच्चारण किये जानेवाले वर्णोको विषय करनेवाले प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है, कहींपर अपने अभ्यस्त प्रदेशमें एक स्पर्शके ग्रहणकालमें ही अन्य स्पर्श विशिष्ट उस वस्तुके प्रदेशान्तरोंका ग्रहण होता है, तथा कहींपर एक रसके ग्रहणकालमें ही उन प्रदेशोंमें नहीं रहनेवाले रसान्तरसे विशिष्ट वस्तुका ग्रहण होता है। दूसरे आचार्य • नि:सृत' ऐसा पढ़ते हैं । उनके द्वारा उपमा प्रत्यय एक ही संग्रहीत होगा, अतः यह इष्ट नहीं है । इसका प्रतिपक्षभूत निःसृतप्रत्यय है, क्योंकि, कहींपर किसी कालमें आलम्बनीभूत वस्तुके एक देशमें उतने ही ज्ञानका अस्तित्व पाया जाता है।
इन्द्रियके प्रतिनियत गुणसे विशिष्ट वस्तुके ग्रहणकालमें ही उस इन्द्रियके अप्रति
१ निःसृतमित्यपरे पठति ...ध. अ. प. ११६९. अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः। त एवं वर्णयन्तिओन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य कुररस्य वेति कश्चित् प्रतिपद्यते । अपरः स्वरूपमेवानिःसृत इति । स. सि. १, १६. क. क. २०.
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