Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा
[१५९ इति आगमाद्वा तेषामप्राप्तार्थग्रहणमवगम्यते। नवयोजनान्तरस्थितपुद्गलद्रव्यस्कंधैकदेशमागम्येन्द्रियसंबद्धं जानन्तीति केचिदाचक्षते । तन्न घटते, अध्वानप्ररूपणायाः वैफल्यप्रसंगात्। न चाध्वानं द्रव्याल्पीयस्त्वस्य कारणम् , स्वमहत्वापरित्यागेन भूयो योजनानि संचरज्जीमूतव्रातोपलंभतोऽनेकांतात् । किं च यदि प्राप्तार्थग्राहिण्येवेन्द्रियाण्यध्वाननिरूपणमंतरेण द्रव्यप्रमाणप्ररूपणमेवाकरिष्यत् । न चैवम् , तथानुपलंभात् । किं च नवयोजनांतरस्थिताग्नि-विषाभ्यांतीव्रस्पर्श-रसक्षयोपशमानां दाह-मरणे स्याताम् , प्राप्तार्थग्रहणात् । तावन्मात्राध्वानस्थिताशुचिभक्षणतद्गन्धजनितदुःखे च तत एव स्याताम् ।
( पुढे सुणेइ सदं अप्पुढे चेय पस्सदे रूवं ।
गंधं रसं च फासं बद्धं पुटुं च जाणादि ॥ ५५ ॥ ) इत्यस्मात्सूत्रात्प्राप्तार्थग्राहित्वमिन्द्रियाणामवगम्यत इति चेन्न, अर्थावग्रहस्य लक्षणा
इस आगमसे भी उक्त चार इन्द्रियोंके अप्राप्त पदार्थका ग्रहण जाना जाता है। नौ योजनके अन्तरसे स्थित पुद्गल द्रव्य स्कन्धके एक देशको प्राप्त कर इन्द्रियसम्बद्ध अर्थको जानते हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अध्वानप्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसंग आता है। और अध्वान द्रव्यकी सूक्ष्मताका कारण नहीं है, क्योंकि, अपने महान् परिमाणको न छोड़कर बहुत योजनों तक गमन करते हुए मेघसमूहके देखे जानेसे हेतु अनैकान्तिक होता है। दूसरे, यदि इन्द्रियां प्राप्त पदार्थको ग्रहण करनेवाली ही होती तो अध्वानका निरूपण न करके द्रव्यप्रमाणकी प्ररूपणा ही की जाती। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता । इसके अतिरिक्त नौ योजनके अन्तरमें स्थित अग्नि और विषसे स्पर्श और रसके
व क्षयोपशमसे यक्त जीवोंके क्रमशः दाह और मरण होना चाहिये, क्योंकि, इन्द्रियां प्राप्त पदार्थका ग्रहण करनेवाली हैं । और इसी कारण उतने मात्र अध्वानमें स्थित अशुचि पदार्थके भक्षण और उसके गन्धसे उत्पन्न दुख भी होना चाहिये ।
. शंका-श्रोत्रसे स्पृष्ट शब्दको सुनता है। परन्तु चक्षुसे रूपको अस्पृष्ट ही देखता है । शेष इन्द्रियोंसे गन्ध, रस और स्पर्शको बद्ध व स्पृष्ट जानता है ॥ ५४॥
इस सूत्रसे इन्द्रियोंके प्राप्त पदार्थका ग्रहण करना जाना जाता है ? समाधान -ऐसा नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर अर्थावग्रहके लक्षणका अभाव
१ स. सि. १, १९. त. रा १, १९, ३. तत्र ' बद्धं पुढे च' इत्येतस्य स्थाने 'पुढे पुढे ' इति पाठः । पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुढे तु । गंध रसं च फासं च बद्धपुढे वियागरे । वि. भा. ३३६ (नि. ५).
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