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४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा
[१५५ विषयश्चेददृष्टमश्रुतं च । न च तस्य तत्र वृत्तिरसिद्धा, उपदेशमंतरेण द्वादशांगश्रुतावगमान्यथानुपपत्तितस्तस्य तत्सिद्धेः ।
इदानीमुच्चार्य प्रदर्श्यन्ते । तद्यथा- चक्षुषा बहुमवगृह्णाति, चक्षुषा एकमवगृह्णाति, चक्षुषा बहुविधमवगृह्णाति, चक्षुषा एकविधमवगृह्णाति, चक्षुषा क्षिप्रमवगृह्णाति, चक्षुषा अक्षिप्रमवगृह्णाति, चक्षुषा अनिसृतमवगृह्णाति, चक्षुषा निःसृतमवगृह्णाति, चक्षुषा अनुक्तमवगृह्णाति, चक्षुषा उक्तमवगृह्णाति, चक्षुषा ध्रुवमवगृह्णाति, चक्षुषा अध्रुवमवगृह्णाति । एवं चक्षुरिन्द्रियावग्रहो द्वादशविधः। ईहावायधारणाश्च प्रत्येकं चक्षुषो द्वादशविधा भवन्ति । तद्यथा-- बहुमीहते, एकमीहते, बहुविधमीहते, एकविधमीहते, क्षिप्रमीहते, अक्षिप्रमीहते, निःसृतमीहते, अनिःसृतमीहते, उक्तमीहते, अनुक्तमीहते, ध्रुवमीहते, अध्रुवमीहते । एवमीहाभेदाः। बहुमवैति, एकमवैति, बहुविधमवैति, एकविधमवैति, क्षिप्रमवैति, अक्षिप्रमवैति,
समाधान-अदृष्ट और अश्रुत पदार्थ उसका विषय है । और उसका वहां रहना असिद्ध नहीं है, क्योंकि, उपदेशके विना अन्यथा द्वादशांग श्रुतका ज्ञान नहीं बन सकता; अतएव उसका अदृष्ट व अश्रुत पदार्थमें रहना सिद्ध है।
__ अब ये भेद उच्चारण करके दिखलाये जाते हैं। वह इस प्रकारसे-चक्षुसे बहुतका अवग्रह करता है, चक्षुसे एकका अवग्रह करता है, चक्षुसे बहुत प्रकारका अवग्रह करता
से एक प्रकारका अवग्रह करता है, चक्षुसे क्षिप्रका अवग्रह करता है, चक्षसे अक्षिप्रका अवग्रह करता है, चक्षुसे अनिःसृतका अवग्रह करता है, चक्षुसे निःसृतका अवग्रह करता है, चक्षुसे अनुक्तका अवग्रह करता है, चक्षुसे उक्तका अवग्रह करता है, चक्षुसे ध्रुवका अवग्रह करता है, चक्षुसे अध्रुवका अवग्रह करता है। इस प्रकार चक्षुरिन्द्रियावग्रह बारह प्रकार है।
ईहा, अवाय और धारणा इनमेंसे प्रत्येक चक्षुके निमित्तसे बारह प्रकार है । वह इस प्रकारसे-बहुतका ईहा करता है, एकका ईहा करता है, बहुविधका ईहा करता है, एकविधका ईहा करता है, क्षिप्रका ईहा करता है, अक्षिप्रका ईहा करता है, निःसृतका ईहा करता है, अनिःसृतका ईहा करता है, उक्तका ईहा करता है, अनुक्तका ईहा करता है, ध्रुवका ईहा करता है, अध्रुवका ईहा करता है । इस प्रकार ये ईहाके भेद है । बहुतका अवाय करता है, एकका अवाय करता है, बहुविधका अवाय करता है, एकविधका अवाय करता, क्षिप्रका अवाय करता है, अक्षिप्रका अवाय
२. अ. प. ११६९. तत्र · अश्रुतम् ' इत्येतस्याने ' अननुभूतम् ' इत्यधिकं पदम् । २ प्रतिषु ईहावायाधारणाश्र' इति पाठः।
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