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४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा
[१४५ चेन्न, ततः पश्चात्संशयोत्पत्तरभावप्रसंगानिर्णयस्य विपर्ययानध्यवसायात्मकत्वविरोधाच्च । द्वितीये न प्रमाणमवग्रहः, तस्य संशय-विपर्ययानध्यवसायेष्वन्तर्भावादिति ? न, अवग्रहस्य द्वैविध्यात् । द्विविधोऽवग्रहो विशदाविशदावग्रहभेदेन । तत्र विशदो निर्णयरूपः अनियमेनेहावाय-धारणाप्रत्ययोत्पत्तिनिबन्धनः । निर्णयरूपोऽपि नायमवायसंज्ञकः, ईहाप्रत्ययपृष्ठभाविनो निर्णयस्य अवायव्यपदेशात् । तत्र अविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषा-वयोरूपादिविशेषः गृहीतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्वादिविशेषः अनियमेनेहाद्युत्पत्तिहेतुः । नायमविशदावग्रहो दर्शनेऽन्तर्भवति, तस्य विषय-विषयिसन्निपातकालवृत्तित्वात् । अप्रमाणमविशदावग्रहः, अनध्यवसायरूपत्वादिति चेन्न, अध्यवसितकतिपयविशेषत्वात् । न विपर्ययरूपत्वादप्रमाणम् , तत्र वैपरीत्यानुपलंभात् । न विपर्ययज्ञानोत्पादकत्वादप्रमाणम् , तस्मात्तदुत्पत्तेर्नियमाभावात् । न संशयहेतुत्वादप्रमाणम् ,
नहीं सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर उसके पीछे संशयकी उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आवेगा, तथा निर्णयके विपर्यय व अनध्यवसाय रूप होनेका विरोध भी है । अनिर्णय स्वरूप माननेपर अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनेपर उसका संशय, विपर्यय व अनध्यवसायमें अन्तर्भाव होगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अवग्रह दो प्रकार है । विशदावग्रह और अविशदावग्रहके भेदसे अवग्रह दो प्रकार है। उनमें विशद अवग्रह निर्णय रूप होता हुआ अनियमसे ईहा, अवाय और धारणा ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है। यह निर्णय रूप होकर भी अवाय संज्ञावाला नहीं हो सकता, क्योंकि, ईहा प्रत्ययके पश्चात् होनेवाले निर्णयकी अवाय संज्ञा है।
___उनमें भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको ग्रहण न करके व्यवहारके कारणभूत पुरुष मात्रके सत्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला तथा अनियमसे जो ईहा आदिकी उत्पत्ति में कारण है वह अविशदावग्रह है। यह आविशदावग्रह दर्शनमें अन्तर्भूत नहीं है, क्योंकि वह ( दर्शन ) विषय और विषयीके सम्बन्धकालमें होनेवाला है।
शंका-अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि, वह अनध्यवसाय स्वरूप है ? समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि, वह कुछ विशेषोंके अध्यवसायसे सहित है।
उक्त ज्ञान विपर्यय स्वरूप होनेसे भी अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, उसमें विपरीतता नहीं पायी जाती । यदि कहा जाय कि वह चूंकि विपर्यय ज्ञानका उत्पादक है अतः अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उससे विपर्यय ज्ञानके उत्पन्न होनेका कोई नियम नहीं है । संशयका हेतु होनेसे भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि,
१ प्रतिषु ' द्वैविध्येवग्रहो' इति पाठः ।
छ, क.१९. Jain Education International
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