Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१४४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, १, १५. उपात्तानीन्द्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि, तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम् । यथा गतिशक्त्युपेतस्यापि स्वयं गन्तुमसमर्थस्य यष्ट्याद्यालंबनप्राधान्यं गमनम् , तथा मति-श्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वयमानुपलब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधान ज्ञान परायत्तत्वात्परोक्षम् ।
___ तत्र मत्याख्यं प्रमाणं चतुर्विधम् - अवग्रह ईहा अवायो धारणा चेति' । विषय-विषयिसन्निपातानंतरमाचं ग्रहणमवग्रहः । पुरुष इत्यवग्रहीते भाषा-वयोरूपादिविशेषैराकांक्षणमीहा । ईहितस्यार्थस्य विशेषविज्ञानात् याथात्म्यावगमनमवायः । निर्णीताविस्मृतिर्यतस्सा धारणा ।
अथ स्यादवग्रहो निर्णयरूपो वा स्यादनिर्णयरूपो वा ? आये अवायान्तर्भावः । अस्तु
वह परोक्ष है । यहां उपात्त शब्दसे इन्द्रियां व मन तथा अनुपात्त शब्दसे प्रकाश व उपदेशादिका ग्रहण किया गया है । इनकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जिस प्रकार गमन शक्तिसे युक्त होते हुए भी स्वयं गमन करने में असमर्थ व्यक्तिका लाठी आदि आलम्बनंकी प्रधानतासे गमन होता है, उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर शस्वभाव परन्तु स्वयं पदार्थों को ग्रहण करनेके लिये असमर्थ हुए आत्माके पूर्वोक्त प्रत्ययोंकी प्रधानताले उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पराधीन होनेसे परोक्ष है।
उनमें मति नामक प्रमाण चार प्रकार है- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । विषय और विषयोंके सम्बन्धके अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है वह अवग्रह है । 'पुरुष' इस प्रकार अवग्रह द्वारा गृहीत अर्थमें भाषा, आयु और रूपादि विशेषोंसे होनेवाली आकांक्षाका नाम ईहा है । ईहासे गृहीत पदार्थका भाषा आदि विशेषोंके ज्ञानसे जो यथार्थ स्वरूपसे ज्ञान होता है वह अवाय है। जिससे निर्णीत पदार्थका विस्मरण नहीं होता वह धारणा है।
शंका-क्या अवग्रह निर्णय रूप है अथवा अनिर्णय रूप ? प्रथम पक्षमें अर्थात् निर्णय रूप स्वीकार करनेपर उसका अवायमें अन्तर्भाव होना चाहिये । परन्तु ऐसा हो
१ अ-काप्रत्योः · गतिशक्यपेतस्यापि ' इति पाठः।
२ त. रा. १, ११, ६. ३ उग्गह ईहाऽवाओ य धारणा एव हुंति चारि । आभिणिबोहियणाणस्स भेयवत्थू समासेणं ॥ अस्थाणं उग्गणमि उग्गहो तह विआलणे ईहा । ववसायंमि अवाओ धरणं पुण धारण विति ॥ नं. सू. गा. ७५-७६.
४ ष. खं. पु. १. पृ. ३५४; पु. ६, पृ. २६. तत्र अवग्रहणमवग्रहः- अनिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थग्रहणमित्यर्थः । यदाह चूर्णिकृत् “ सामन्नस्त्र रूवादिविसेसणरहियस्स अनिद्देसस्स अवग्गणमवग्गह" इति । नं. सू. ( म. वृत्ति ) २७.।
५ष. खं. पु. १, पृ. ३५४; पु. ६. पृ. १६. अवग्रहगृहीतार्थसमुद्भुतसंशयनिरासाय यतनमीहा । तद्यथापुरुष इति निश्चितेऽर्थे किमयं दाक्षिणात्य उतौदीच्य इति संशये सति दाक्षिणात्येन भवितव्यमिति तन्निरासायेहाख्यं झान जायत इति । न्या. दी. पू. ३२. ईहनमीहा, सद्भतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः । नं. सू. (म. वृत्ति) २७.
६ प्रतिषु । निणीतार्थविस्मृतिर्यतस्साधारणात् ' इति पाठः ।
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