Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, ४५. कारणानुगुणकार्यनियमानुपलंभात् , संशयादप्रमाणात्प्रमाणीभूतनिर्णयप्रत्ययोत्पत्तितोऽनेकान्ताच । न च संशयरूपत्वादप्रमाणम् , स्थाणु-पुरुषसंचारिणश्चलस्वभावस्य संशयस्य अचलेनैकार्थविषयेण अविशदावग्रहेण एकत्वविरोधात् । ततो गृहीतवस्त्वंशं प्रति अविशदावग्रहस्य प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यम् , व्यवहारयोग्यत्वात् । व्यवहारायोग्योऽपि अविशदावग्रहोऽस्ति, कथं तस्य प्रामाण्यम् ? न, किंचिन्मया दृष्टमिति व्यवहारस्य तत्राप्युपलंभात् । वास्तवव्यवहारायोग्यत्वं प्रति पुनरप्रमाणम् ।
पुरुषमवगृह्य किमयं दाक्षिणात्य उत उदीच्य इत्येवमादिविशेषाप्रतिपत्तौ संशयानस्योत्तरकालं विशेषोपलिप्सां प्रति यतनमीहा । ततोऽवग्रहगृहीतग्रहणात् संशयात्मकत्वाच्च न प्रमाणमीहाप्रत्यय इति चेदुच्यते - न तावद् गृहीतग्रहणमप्रामाण्यनिबन्धनम् , तस्य संशय-विपर्ययानध्यवसायनिबन्धनत्वात् । न चैकान्तेन ईहा गृहीतग्राहिणी, अवग्रहेण गृहीतवस्त्वंशनिर्णयोत्पत्तिनिमित्तलिंगमवग्रहागृहीतमध्यवस्यंत्या गृहीतग्राहित्वा
कारणगुणानुसार कार्यके होने का नियम नहीं पाया जाता, तथा अप्रमाणभूत संशयले प्रमाणभूत निर्णय प्रत्ययकी उत्पत्ति होनेस उक्त हेतु व्यभिचारी भी है । संशय रूप होनेसे भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि, स्थाणु और घुरुष आदि रूप दो विषयोंमें प्रवर्त
व चलस्वभाव संशयकी अचल व एक पदार्थको विषय करनेवाले आविशदावग्रह के साथ एकताका विरोध है। इस कारण ग्रहण किये गये वस्त्वंशके प्रति अविशदावग्रहको प्रमाण स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि, वह व्यवहारके योग्य है।
शंका-व्यवहारके अयोग्य भी तो अविशदावग्रह है, उसके प्रमाणता कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, 'मैंने कुछ देखा है ' इस प्रकारका व्यवहार वहां भी पाया जाता है । किन्तु वस्तुतः व्यवहारकी अयोग्यताके प्रति वह अप्रमाण है।
शंका-अवग्रहसे पुरुषको ग्रहण करके, क्या यह दक्षिणका रहनेवाला है या उत्तरका, इत्यादि विशेषज्ञानके विना संशयको प्राप्त हुए व्यक्तिके उत्तरकालमें विशेष जिज्ञासाके प्रति जो प्रयत्न होता है उसका नाम ईहा है। इस कारण अवग्रहसे गृहीत विषयको ग्रहण करने तथा संशयात्मक होनेसे ईहा प्रत्यय प्रमाण नहीं है?
__. समाधान-इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि गृहीतग्रहण अप्रामाण्यका कारण नहीं है, क्योंकि, उसका कारण संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय है। दूसरे, ईहा प्रत्यय सर्वथा गृहीतग्राही भी नहीं है, क्योंकि, अवग्रहसे गृहीत वस्तुके उस अंशके निर्णयकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत लिंगको, जो कि अवग्रहसे नहीं ग्रहण किया गया है, ग्रहण करनेवालाईहा
१ प्रतिषु किंचिनया' इति पाठः।
२ प्रतिषु 'अनवगृहीतगृहीत' इति पाठः ।
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