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१३४ छक्खंडागमे धेयणाखंड
(४, १, ४५. भवियलोएण अब्भसेयव्वो। ण एसो गंथो थोवो त्ति मोक्खकज्जजणणं पडि असमत्थो, अमियघडसयवाणफलस्स चुलुवामियवाणे वि उवलंभादो। एवं मंगलादीणं छण्णं परवणं काऊण पयदगंथस्स संबंधपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि -
अग्गेणियस्स पुवस्स पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थो पाहुडो कम्मपयडी णाम ॥ ४५ ॥
तत्थ इमाणि चउवीसअणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति - कदि वेदणाए पस्से कम्मे पयडीसु बंधणे णिबंधणे पक्कमे उवक्कमे उदए मोक्खे पुण संकमे लेस्सा-लेस्सायम्मे लेस्सापरिणामे तत्थेव सादमसादे दीहेरहस्से भवधारणीए तत्थ पोग्गलत्ता णिवत्तमणिधत्तं णिकाचिदमणिकाचिदं कम्महिदिपच्छिमक्खंधे अप्पाबहुगं च। सव्वत्थ सम्वेसिं गंथाणं उवक्कमो णिक्खेवो अणुगमो णओ चेदि चउव्विहो अवयारो होदि । तत्थ उपक्रम्यते अनेनेत्युपक्रमः, जेण करणभूदेण णाम-पमाणादीहि गंथो अवगम्मदे सो उवक्कमो णाम । आणुपुट्वि-णाम-पमाण-वत्तव्वदत्थाहियारभेएण उवक्कमो पंचविहो । तत्थ आणुपुविउव
अभ्यास करना चाहिये । चूंकि यह ग्रन्थ स्तोक है अतः वह मोक्षरूप कार्यको उत्पन्न करनेके लिये असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिये; क्योंकि, अमृतके सौ घडोंके पीनेका फल चुल्लु प्रमाण अमृतके पीनेमें भी पाया जाता है । इस प्रकार मंगलादिक छहकी प्ररूपणा करके प्रकृत ग्रन्थक सम्बन्धको बतलानेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
अग्रायणी पूर्वकी पंचम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतका नाम कर्मप्रकृति है ॥ ४६॥
उसमें ये चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं- कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, वहांपर ही सातासात, दीर्घ-हस्व, भवधारणीय, वहां पुद्गलात्त, निधत्तानिधत्त, निकाचितानिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कन्ध और अल्पबहुत्व । सर्वत्र सब : उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय,इस प्रकार चार प्रकारका अवतार होता है। उनमें 'उपक्रम्यते अनेन इति उपक्रमः' इस निरुक्तिके अनुसार जिस साधन द्वारा नाम व प्रमाणादिकोंसे ग्रन्थ जाना जाता है वह उपक्रम है । यह उपक्रम आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकारके भेदसे पांच प्रकार है। उनमें आनुपूर्वी उपक्रम तीन प्रकार
१णाणप्पवादस्स पुवस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स पंचविहो उवक्कमो। तं जहा-आश्पुब्बी, नाम, पमाणं वत्तबदा, अस्थहियारो चेदि (यू. सू.)। उपक्रम्यते समीपीक्रियते श्रोत्रा अनेन प्राभूतमित्युपक्रमः । नवध, १, पृ. १३.
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