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छक्खंडागमे वेयणाखंड उप्पण्णत्तादों। णाणी बुद्धिवंतो इच्चाईणि णामाणि आदाणपदाणि चेव, इदमेदस्स अस्थि त्ति विवक्खाणिबंधणत्तादो। ण गोण्णपदाणि, संबंधविवक्खाए विणा गुणसण्णाए दव्वम्मि पउत्तिअदंसणादो । विहवा रंडा पोरो दुविही इच्चाईणि पडिवक्खपदाणि अगम्भिणी अमउडी इच्चादीणि वा, इदमेदस्स णस्थि त्ति विवक्खाणिबंधणादो। अण्णहि वि रुक्खेहि सहियाण कयंब-णिबंबरुक्खाणं बहुत्तं पेक्खिय जाणि कयंब-णिबंबवणणामाणि ताणि वाधण्णपदाणि । किमेत्थ पधाणत्तं ? अप्पियं पहाणत्तमणप्पियमप्पहाणत्तैमण्णहा पहाणत्ताणुववत्तीदो । अरविंदसदस्स अरविंदसण्णा णामपदं, णामस्स अप्पाणम्हि चेव पउत्तिदसणादो। सदं सहस्समिच्चादीणि पमाणपदणामाणि, संखाणिबंधणादो । अवयवो दुविहो समवेदो असमवेदो चेदि । सिलीवदी
क्योंकि, वे ' यह (छत्रादि ) इसके है ' इस विवक्षासे उत्पन्न हुए हैं । ज्ञानी व बुद्धिमान् इत्यादि नाम आदानपद ही हैं, क्योंकि, इनका कारण ' यह इसके है' यह विवक्षा है। ये गौण्यपद नहीं हैं, क्योंकि, सम्बन्धविवक्षाके विना द्रव्यमें गुण संज्ञाकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती। विधवा, रांड़, पोर ( अनाथ बालक) व दुर्विध (धनहीन ) इत्यादिः अथवा अगर्भिणी व अमुकुटी (मुकुट हीन) इत्यादि प्रतिपक्ष पद है; क्योंकि, ये पद 'यह इसके नहीं है' इस विवक्षाके निमित्तसे हैं । अन्य भी वृक्षोंसे सहित कदम्ब, नीम व आमके वृक्षोके बाहुल्य की अपेक्षा करके जो कदम्बवन, निम्बवन व आम्रवन नाम हैं वे प्राधान्यपद हैं।
शंका-यहां प्रधानता क्या है ?
समाधान-विवक्षित प्रधानता और अविवक्षित अप्रधानता है, क्योंकि, इसके विना प्रधानता बन नहीं सकती।
अरविन्द शब्दकी अरविन्द संज्ञा नाम पद है, क्योंकि, नामकी प्रवृत्ति अपने ही देखी जाती है । शत, सहन इत्यादि प्रमाणपद नाम हैं, क्योंकि, वे संख्यानिमित्तक हैं।
अवयव दो प्रकार है - समवेत और असमवेत । श्लीपद, गलगण्ड, दीर्धनास एवं
१ दंडी छत्ती मोली गभिणो अइहवा इच्चादिसण्णाओ आदाणपदाओ, इदमेदस्स अस्थि ति संबंधणिबंधणत्तादो। जयध. १, पृ. ३१.
२ [णाणी बुद्धिवं- ] तो इच्चादीणि वि णामाणि आदाणपदाणि चेत्र, इदमेदस्स अस्थि ति विवक्खाणिबंधणत्तादो। एदाणि गोपणपदाणि किण्ण होंति ? ण, गुणमुहेण दव्वम्हि पवुतीए संबंधविश्वखाए विणा अदंसणाद। जयध. १, पृ. ३२. ... ३ विहबा रंडा पोरा दुविहा इच्चाईणि णामाणि पडिवखपदाणि, इदमेदस्स णथि त्ति विवक्खागिमंधणसादो। जयध. १, पृ. ३२.
४ अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाधस्यकस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत् । तद्विपरीतमनर्पितम् । स. सि. ५, ३२. ५ प्रतिषु 'सिलीवभी' इति पाठः।
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