Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१२०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, १, ४४. । इम्मिस्से वसप्पिणीए चउत्थकालस्स पब्छिमे भाए ।
" चोत्तीसवाससेसे किंचिविसेसूणकालम्मि' ॥ २५ ॥ तं जहा- पण्णारहदिवसेहिं अट्ठहि मासेहि य अहिय पचहत्तरिवासावसेसे चउत्थकाले | "५ | पुप्फुत्तरविमाणादो आसाढजोण्णपक्खछट्ठीए महावीरो बाहत्तरिवासाउओ तिणाणहरो गम्भमोइण्णो । तत्थ तीसवासाणि कुमारकालो, बारसवासाणि तस्स छदुमत्थकालो, केवलिकालो वि तीसं वासाणि; एदेसिं तिण्हं कालाणं समासो बाहत्तरिवासाणि । एदाणि पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्माणजिणिंदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि । एदम्मि छासहिदिवसूणकेवलकाले पक्खित्ते णवदिवस-छम्मासाहियतेतीसवासाणि चउत्थकाले अवसेसाणि होति । छासहिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किमढें कीरदे ? केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो । दिव्वज्झुणीए किमटुं तत्थापउत्ती ? गणिदाभावादो । सोहम्मिदेण
इसी अवसर्पिणीके चतुर्थ कालके अन्तिम भागमें कुछ कम चौंतीस वर्ष प्रमाण कालके शेष रहनेपर [धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई ] ॥ २५ ॥
वह इस प्रकारसे-पन्द्रह दिन और आठ मास अधिक पचत्तर वर्ष चतुर्थ कालमें शेष रहनेपर (७५ व. ८ मा. १५ दि.) पुष्पोत्तर विमानसे आषाढ़ शुक्ल षष्ठीके दिन बहत्तर वर्ष प्रमाण आयुसे युक्त और तीन ज्ञानके धारक महावीर भगवान् गर्भमें अवतीर्ण हुए। इसमें तीस वर्ष कुमारकाल, बारह वर्ष उनका छद्मस्थकाल, केवलिकाल भी तीस वर्ष, इस प्रकार इन तीन कालोंका योग बहत्तर वर्ष होते हैं। इनको पचत्तर वर्षों में से कम करनेपर वर्धमान जिनेन्द्र के मुक्त होनेपर जो शेष चतुर्थकाल रहता है उसका प्रमाण होता है । इसमें छयासठ दिन कम केवलिकालके जोड़नेपर नौ दिन और छह मास अधिक तेतीस वर्ष चतुर्थ कालमें शेष रहते हैं।
शंका-केवलिकालमें छयासठ दिन कम किसलिये किये जाते हैं ?
समाधान-क्योंकि, केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी उनमें तीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई।
शंका-इन दिनों में दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति किसलिये नहीं हुई ?
समाधान - गणधरका अभाव होनेसे उक्त दिनोंमें दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति नहीं हुई।
शंका-सौधर्म इन्द्रने उसी क्षणमें ही गणधरको उपस्थित क्यों नहीं किया ?
१. खं. पु. १, पृ. ६२. जयध. १, पृ. ७४. २ पंचसप्ततिवर्षाष्टमास-मासार्धशेषकः । चतुर्थस्तु तदा कालो दुःखमः सुखमोत्तरः ॥ ह. पु. २-२२.
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