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४, १, ४४.] कदिअणियोगदारे वड्डमाणाउविसए अण्णाइरियाभिमयं तक्खणे चेव गणिंदो किण्ण ढोइदो ? काललद्धीए विणा असहायस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिसिय दिव्वज्झुणी किण्ण पयट्टदे ? साहावियादो। ण च सहावो परपज्जणियोगारुहो, अव्ववत्थावत्तीदो। तम्हा चोत्तीसवाससेसे किंचिविसेसूणचउत्थकालम्मि तित्थुप्पत्ती जादा त्ति सिद्ध।
अण्ण के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अट्ठहि मासेहि य ऊणाणि बाहत्तरि वासाणि त्ति वड्डमाणजिणिंदाउअं परूवेंति | ३।। तेसिमहिप्पाएण गब्भत्थ-कुमार-छदुमत्थ-केवलकालाणं परूवणा कीरदे । तं जहा- आसाढजोण्णपक्खछट्ठीए कुंडलपुरणगराहिव-णाहवंससिद्धत्थणरिंदस्स तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहियणवमासे अच्छिय चइत्तसुक्कपक्खतेरसीए उत्तराफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो । एत्थ आसाढजोण्णपक्खछट्टिमादि कादूण जाव पुण्णिमा त्ति दस दिवसा होति १० । पुणो सावणमासमादि कादूर्ण
समाधान नहीं किया, क्योंकि, काललब्धिके विना असहाय सौधर्म इन्द्रके उनको उपस्थित करनेकी शक्तिका उस समय अभाव था।
शंका-अपने पादमूलमें महाव्रतको स्वीकार करनेवालेको छोड़ अन्यका उद्देश कर दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रवृत्त होती?
समाधान नहीं होती, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । और स्वभाव दूसरों के प्रश्नके योग्य नहीं होता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है।
इस कारण चतुर्थ कालमें कुछ कम चौतीस वर्ष शेष रहनेपर तीर्थकी उत्पत्ति हुई, यह सिद्ध है।
अन्य कितने ही आचार्य पांच दिन और आठ मासोंसे कम बहत्तर वर्ष प्रमाण वर्धमान जिनेन्द्रकी आयु बतलाते हैं (७१ व. ३ मा. २५ दि.)। उनके अभिप्रायानुसार गर्भस्थ, कुमार, छद्मस्थ और केवलज्ञानके कालौकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार हैआषाढ़ शुक्ल पक्ष षष्ठीके दिन कुण्डलपुर नगरके अधिपति नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्रकी त्रिशला देवीके गर्भमै आकर और वहां आठ दिन अधिक नौ मास रहकर चैत्र शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीके दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें गर्भसे बाहर आये। यहां आषाढ़ शुक्ल पक्षकी षष्ठीको आदि करके पूर्णिमा तक दश दिन होते हैं [१० दि.] । पुनः श्रावण मासको आदि करके आठ मास
३ जयध. १,
१ प्रतिषु तद्धोयण ' इति पाठः । २ मप्रती ' अव्ववत्थादो' इति पाठः। पृ. ७५-७६. ४ प्रतिषु (दुमत्था' इति पाठः ।
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