Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेणाखंड
[ ४, १, ४४.
१ ५
वीरणिव्वाणगयदिवसादेो गदेसु सावणमासपडिवयाए दुसमकालो ओदिण्णो | | | एदं कालं वङ्कुमाणजिनिंदाउअम्मि पक्खिते दसदिवसाहियपंचहत्तरिवासमेत्तावसेसे चउत्थकाले सग्गादा वड्डमाणजिंर्णिदस्स ओदिण्णकालो होदि | ११ ||
१२६]
दो वि उवएसेसु को एत्थ समंजसो, एत्थ ण बाहइ जिन्भमेलाइरियवच्छओ, भलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाह्राणुवलंभादो । किंतु दोसु एक्केण होदव्वं । तं जाणिय बत्तव्वं ।
एवमत्थकत्तार परूवणा कदा |
संपद्दि गंथकत्तारपरूवणं कस्सामा । वयणेण विणा अत्थपदुपायणं णं सभवइ, सुहुमत्थाणं सण्णाए परूवणाणुववत्तदा । ण चाणक्खराए झुणीए अत्थपदुप्पायणं जुज्जदे, अणक्खरभासतिरिक्खे मोत्तूणण्णेसिं तत्तो अत्थावगमाभावादो | ण च दिव्वज्झुणी अणक्खरप्पिया चेव, अट्ठारस - सत्तसयभास- कुभासप्पियत्तादो । तदो अत्थपरूवओ चेव गंथपरूवओ
आदि लेकर तीन वर्ष और आठ मासोंके वीतने पर श्रावण मास की प्रतिपदा के दिन दुखमा काल अवतीर्ण हुआ [ ३ व. ८ मा. १५ दि. ]। इस कालको वर्धमान जिनेन्द्रकी आयुमें मिला देनेपर दश दिन अधिक पचत्तर वर्ष मात्र चतुर्थ कालके शेष रहनेपर वर्धमान जिनेन्द्रके स्वर्गसे अवतीर्ण होनेका काल होता है [ ७५ व १० दि. ] ।
उक्त दो उपदेशों में कौनसा उपदेश यथार्थ है, इस विषय में एलाचार्यका शिष्य ( वीरसेन स्वामी ) अपनी जीभ नहीं चलाता अर्थात् कुछ नहीं कहता, क्योंकि, न तो इस विषयका कोई उपदेश प्राप्त है और न दोमेंसे एकमें कोई बाधा ही उत्पन्न होती है । किन्तु दोनों में से एक ही सत्य होना चाहिये । उसे जानकर कहना उचित है ।
इस प्रकार अर्थकर्ताकी प्ररूपणा की ।
अब ग्रन्थकर्ताकी प्ररूपणा करते हैं ।
शंका- वचनके विना अर्थका व्याख्यान सम्भव नहीं है, क्योंकि, सूक्ष्म पदार्थोंकी संज्ञा अर्थात् संकेत द्वारा प्ररूपणा नहीं बन सकती। यदि कहा जाय कि अनक्षरात्मक ध्वनि द्वारा अर्थकी प्ररूपणा होसकती है, सो यह भी योग्य नहीं है; क्योंकि, अनक्षर भाषा युक्त तिर्यचौको छोड़कर अन्य जीवोंको उससे अर्थज्ञान नहीं हो सकता । और दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक ही हो, सो भी नहीं है; क्योंकि, वह अठारह भाषा एवं सात सौ कुभाषा स्वरूप है । इसी कारण चूंकि अर्थका प्ररूपक ही ग्रन्थका प्ररूपक होता है, अतः प्रन्थकर्ताकी
१ अ. १, पु. ८१-८१.
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