Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, १, ४४.] कदिअणियोगहारे तित्थुप्पत्तिकालो .
एसो वि एवंविही वड्डमाणभडारओ चेव, जुत्ति-सत्याविरुद्धवयणत्तादो । एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ
। खीणे दंसणमोहे चरित्तमोहे तहेव घाइतिए ।
सम्मत्त-विरियणाणी खइए ते हेति जीवाणं' ।। २३ ॥ उप्पण्णम्मि अणंते णट्ठम्मि य छादुमथिए णाणे ।
देविंद दाणविंदा करेंति महिमं जिणवरस्स' ॥ २४ ॥ एवंविहभावेण वड्डमाणभडारएण तित्थुप्पत्ती कदा ।
दव्व-खेत्त-भावपरूवणाणं संसकरणटुं कालपरूवणा कीरदे । तं जहा- दुविहो . कालो ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीभेएण । जत्थ बलाउ-उस्सेहाण उस्सप्पणं उड्डी होदि सो कालो उस्सप्पिणी । जत्थ हाणी सो ओसप्पिणी । तत्थ एक्केक्को सुसम-सुसमादिभेएण' छविहो । तत्थ एदस्स भरहखेत्तस्सोसप्पिणीए चउत्थे दुस्समसुसमकाले णवहि दिवसेहि छहि मासेहि य अहियतेत्तीसवासावसेसे | ३३ / तिथुप्पत्ती जादा । उत्तं च
यह भी इस प्रकार के स्वरूपसे संयुक्त वर्धमान भट्टारक ही हो सकते हैं, क्योंकि, उनके वचन युक्ति व शास्त्रसे अविरुद्ध हैं। यहां उपयुक्त गाथायें
दर्शनमोह, चारित्रमोह तथा तीन अन्य घातिया कर्मों के क्षीण हो जानेपर जीवोंके सम्यक्त्व, वीर्य और ज्ञान रूप वे क्षायिक भाव होते हैं ॥ २३ ॥
अनन्त ज्ञानके उत्पन्न होने और छाद्मस्थिक शानके नष्ट हो जानेपर देवेन्द्र एवं दानवेन्द्र जिनेन्द्रदेवकी महिमा करते हैं ॥ २४ ॥
इस प्रकारके भावसे युक्त वर्धमान भट्टारकने तीर्थकी उत्पत्ति की।
अब द्रव्य, क्षेत्र और भावकी प्ररूपणाओंके संस्कारार्थ कालप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके भेदसे काल दो प्रकार है। जिस कालमें बल, आय व उत्सेधका उत्सर्पण अर्थात वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है। जिस कालमें उनकी हानि होती है वह अवसर्पिणी काल है। उनमें प्रत्येक सुखमासुखमादिकके भेदसे छह प्रकार है। उनमें इस भरतक्षेत्रके अवसर्पिणीके चतुर्थ दुखमासुखमा कालमें नौ दिन व छह मासोंसे अधिक तेतीस वर्षोंके ( ३३ वर्ष ६ मास ९ दिन) शेष रहनेपर तीर्थकी उत्पत्ति हुई । कहा भी है
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११. खं. पु. १, पृ. ६४, जयध. १, पृ. ६८. इति पाठः। ४ प्रतिषु ' तस्स' इति पाठः।
२ जयध. १, पृ. ६८.
३ प्रतिषु 'सुसमादिभेएण'
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