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छक्खंडागमे वैयणाखंड
[ ४, १, ४४.
होदव्वमिदि कस्स वि जीवस्स सयलसहावोवलद्धीए होदव्वं, सहाववड्डितारतम्मुवलंभादो; आगरकणय - पाहाडियसुवण्णस्सेव सुक्कपक्ख चंद मंडलस्सेव वा । कसायस्स विणिस्सेसक्खओ कत्थ वि जीवे होदि, हाणितारतम्मुवलंभादो, आगरकणए व दुबलियमाणमलकलंकस्सेव । णिस्सेसं गाणं धूवरंति कम्माई, आवरणतारतम्मुवलंभादो, चंद्रमंडलं राहुमंडलं वेत्ति ण वेत्तुं जुत्तं, जावदव्वभावीणं णाण- दंसणाणमभावेण जीवदव्त्रस्स वि अभावप्पसंगादो । तदो गेंद घडदि ति । तदा केवलणाणावरणक्खपण केवलणणी, केवल सणावरणक्खएण केवलदंसणी, मोहणीयक्खएण वीयराओ, अंतराइयक्खएण अनंतचलो विग्धविवज्जिओ दरदद्धअघाइकम्मो aar कवि अथ त्ति सिद्धं । ण च खीणावरणो परमियं चैव जाणदि, णिप्पडिबंधस्स सयलत्थावगमणसहावस्स परिमियत्थावगमविरोहादो | अत्रेोपयोगी श्लोकः -
ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबंधरि ।
दाऽग्निर्दाको न स्यादसति प्रतिबंधरि ॥ २२ ॥ ।
पूर्ण स्वभावकी प्राप्ति होना चाहिये, क्योंकि, स्वभाववृद्धिका तारतम्य पाया जाता है; जैसे- खानके कनकपाषाण में स्थित सुवर्ण अथवा शुक्ल पक्ष के चन्द्रमण्डलके । कषायंका भी पूर्ण विनाश किसी भी जीव में होता है, क्योंकि, उसकी हानिका तारतम्य पाया जाता है;' जैसे - खानके सुवर्णमें हीयमान मलकलंक ।
शंका - कर्म पूर्ण ज्ञानका आवरण करते हैं, क्योंकि, आवरणका तारतम्य पाया जाता है; जैसे चन्द्रमण्डलको राहुमण्डल । ऐसा भी यहां कहा जा सकता है ?
समाधान - ऐसा अनुमान योग्य नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर यावद्द्रव्यभावी ज्ञान-दर्शन के अभाव से जीव द्रव्यके भी अभाव होने का प्रसंग आवेगा । इस कारण पूर्ण ज्ञानका आवरण घटित नहीं होता ।
अत एव केवलज्ञानावरणके क्षयसे केवलज्ञानी, केवलदर्शनावरण के क्षयसे केवलदर्शनी, मोहनीयके क्षयसे वीतराग, अन्तरायके क्षयसे विघ्नोंसे रहित अनन्तबलसे संयुक्त, तथा अघातिया कर्मोंको किंचित् दग्ध करनेवाला जीव कहीं पर भी है, यह सिद्ध है । और आवरणके क्षीण हो जानेपर आत्मा परिमितको ही जानता है, यह हो नहीं सकता, क्योंकि, प्रतिबन्धसे रहित और समस्त पदार्थोंके जानने रूप स्वभावसे संयुक्त उसके परिमित पदार्थोंके जाननेका विरोध है । यहां उपयोगी श्लोक
ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकका अभाव होनेपर शेयके विषय में ज्ञान रहित कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता । [ क्या ] अग्नि प्रतिबन्धके अभाव में दाह्य पदार्थका दाहक नहीं होता है ? होता ही है ॥ २२ ॥
१ आ काप्रत्योः ' आगरकरणओ ', ' आप्रतौ ' अगरकरणओ ' इति पाठः ।
२. जयध. १, पू, ६६. स. त. पू. ६२.
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