Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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११६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १,४४.. रूवस्सेव णाणस्स जावदव्वभावित्तप्पसंगादो। ण पज्जायसवेण वियहिचारो, रूवत्तं पडि समाणजादीयस्स रूवविसेसस्स तत्थावट्ठाणं व णाणत्तं पडि समाणजादीयस्स' णाणविसेसस्स जीवे वि सव्वदा अवट्ठाणप्पसंगादो । तम्हा सचेयणो जीवो त्ति इच्छिदव्यो ।
जेसिमण्णोण्णमविरोहो ते तस्स दव्वस्स जावदव्वभाविगुणा पोग्गलदव्वस्स रूवरस-गंध-पास इव । तदो चेयणा व णाण पि जावदव्वभाविगुणो, चेयणाए सह णाणस्स विरोहाभावादो। किं च णाणं जीवस्स जावदव्वभाविगुणो, चेयणादो उवजोगत्तं पडि एगत्तादो। ण च एक्कस्स उवजोगस्स पमेयभेएण दुब्भावं गयस्स भिण्णदव्वावट्ठाणं जुज्जदे, विरोहादो । तदो णाण-दंसणसहावो जीवो त्ति सिद्धं । ण च णाणं दिवायरप्पहा व थोवदव्वगुण-पज्जयपडिबद्धं, सत्तण्णहाणुवत्तीदो सयलमणेयंतप्पयमिच्चाइयस्स अणुमाणणाणस्स सव्वदव्वपज्जयगयस्सुवलंभादो । तदो असेसदव्व-पज्जयणाण-दंसणसहावो जीवो त्ति सिद्धं ।
पुणो कसाया णाणविरोहिणो, कसायवड्डि-हाणीहितो णाणस्स हाणि-वड्डीणमुवलंभादो ।
ज्ञानके यावदद्रव्यभावी होनेका प्रसंग आवेगा । पर्यायभूत नील-पीतादि रूपसे व्यभिचार भी नहीं हो सकता, क्योंकि, रूपत्वके प्रति समान जातीय रूपविशेषके वहां अवस्थानके समान ज्ञानत्वके प्रति समानजातीय ज्ञानविशेषके जीवमें भी सर्वदा अवस्थानका प्रसंग आवेगा । अतएव जीव सचेतन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये।
जिन गुणोंके परस्परमें कोई विरोध नहीं रहता वे उस द्रव्यके यावद्रव्यभावी गुण कहलाते हैं, जैसे पुद्गलद्रव्यके रूप, रस, गन्ध व स्पर्श । इस कारण चेतनाके समान ज्ञान भी यावद्रव्यभावी गुण है, क्योंकि, चेतनाके साथ ज्ञानका कोई विरोध नहीं है। और भी, ज्ञान जीवका याचगव्यभावी गुण है, क्योंकि, चेतनाकी अपेक्षा उपयोगके प्रति उसकी एकता है। और एक उपयोगका प्रमेयके भेदसे द्वित्वको प्राप्त होकर भिन्न द्रव्यमें रहना उचित नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेमें विरोध आता है । अत एव ज्ञान-दर्शनस्वभाव जीव है, यह सिद्ध हुआ। तथा सूर्यप्रभाके समान ज्ञान स्तोक द्रव्य, गुण व पर्यायोंसे सम्बद्ध नहीं है; क्योंकि, 'समस्त पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं, क्योंकि, उसके विना उनकी सत्ता घटित नहीं होती' इत्यादिक अनुमानज्ञान सब द्रव्य व पर्यायोंमें रहनेवाला पाया जाता है । इस कारण सम्पूर्ण द्रव्य एवं पर्यायोंको विषय करनेवाले ज्ञानदर्शन स्वरूप जीव है, ऐसा सिद्ध होता है।
पुनः कषायें ज्ञानकी विरोधी हैं, क्योंकि, कषायोंकी वृद्धि और हानिसे क्रमशः
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१ अप्रतौ • समाणोजाणीयस्स', आप्रतौ । समाणजीणीयस्स ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'गुणो' इति पाठः ।
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