Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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११४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, १४. गाणदेविंदकयपूजाए सह साहम्माभावादो देविद्धिच्छायाएं विच्छायं गच्छंतीए वेंतरपूजाए इंदकयजिणपूजाए इव धुवत्ताभावेण वइधम्मियादो वा । होदु णाम दिजिणदब्वमहिमाणं देविंदसरूवावगच्छंतजीवाणमिदं जिणसवण्णुत्तलिंग, ण सेसाणं; लिंगविसयअवगमाभावादो । ण च अणवगयलिंगस्स लिंगिविसओ अवगमो उप्पज्जदि, अइप्पसंगादो ति उत्ते अणेण पयारेण जिणभावजाणावणटुं भावपरूवणा कीरदे । तं जहा
___ण जीवो जडसहावो, ससंवेयणापच्चक्खेण अविसंवादसहावेण अजडसहावजीउवलभाद।। ण च णिच्चेयणो जीवो चेयणागुणसंबंधेण चेयणसहावो होदि, सरुवहाणिप्पसंगादो। किं च ण णिच्चेयणो जीवो, तस्साभावप्पसंगादो । तं जहा- ण ताव इंदियणाणेण अप्पा घेप्पइ, तस्स बज्झत्थे वावारुवलंभादो। ण ससंवेयणाए घेप्पइ, चेयणसरूवाए तिस्से जडजीवे असंभवादो । ण चाणुमाणेण वि घेप्पइ, दुविहपच्चक्खाणमविसएण जीवेण अविणाभाविलिंग
गई पूजाके साथ कोई साधर्म्य नहीं है। अथवा, देवर्द्धिकी छायाम कान्तिहीनताको प्राप्त होनेवाली ब्यन्तरकृत पूजामें इन्द्रकृत जिनपूजाके समान स्थिरता न होनेसे दोनोंमें साधर्म्यका अभाव है।
शंका-जिनद्रव्य अर्थात् जिनशरीरकी महिमाको देखनेवाले व देवेन्द्रस्वरूपके जानकार जीवों (सौधर्मेन्द्रादिक) के वह जिनदेवकी सर्वशताका साधन भले ही बन सकता हो, किन्तु वह शेष जीवोंके नहीं बनता; क्योंकि, उनके उक्त साधनविषयक ज्ञानका अभाव है। और साधनशानसे रहित व्यक्तिके साध्यविषयक ज्ञान उत्पन्न हो नहीं सकता, क्योंकि, ऐसा होनेमें अतिप्रसंग दोष आता है ?
समाधान- इस शंकाके उत्तरमें इस प्रकारसे जिनभावके ज्ञापनार्थ भावप्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- जीव जड़स्वभाव नहीं है, क्योंकि, विसंवाद रहित स्वभाववाले स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अजस्वभाव जीव पाया जाता है। और अचेतन जीव चेतनागुणके सम्बन्धसे चेतनास्वभाव भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर स्वरूपकी हानिका प्रसंग आवेगा।
दूसरे, जीव अचेतन हो नहीं सकता, क्योंकि, ऐसा होनेसे उसके अभावका प्रसंग आवेगा। वह इस प्रकारसे - इन्द्रियज्ञानके द्वारा तो आत्माका ग्रहण होता नहीं है, क्योंकि, इन्द्रियज्ञानका व्यापार बाह्य अर्थमें पाया जाता है। स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे आत्माका ग्रहण नहीं होता, क्योकि, चेतनस्वभाव होनेसे उक्त प्रत्यक्ष जड़ जीवमें सम्भव नहीं है । अनुमानसे भी आत्माका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, दोनों प्रकारके प्रत्यक्षोंके अविषयभूत जीवके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाले लिंगका ग्रहण सम्भव
१ प्रतिषु देविद्धिच्छाए' इति पाठः ।
२ प्रतिषु लिंगविसओ' इति पाठः।
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