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१००] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, ३९. खीरसादुप्पायणसत्ती वि कारणे कज्जोवयारादो खीरसवी' णाम । कधं रसंतरेसु ट्ठियदव्वाणं तक्खणादेव खीरासादसरूवेण परिणामो ? ण, अमियसमुद्दम्मिणिवदिदविसस्सेव पंचमहव्वय-समिइ-तिगुत्तिकलावघडिदंजलिउदणिवदियाणं तदविरोहादो। सा जेमिमत्थि ते खीरसविणो । तेसिं णमो।
णमो सप्पिसवीणं ॥ ३९ ॥
सपिघृतं । जेसिं तवोमाहप्पेण अंजलि उणिवदिदासेसाहारा पदासादमरवेण परिणमंति ते सप्पिसविणो जिणा । तेसिं णमो ।
( णमो महुसवीणं ॥ ४० ॥
भी कारणमें कार्यके उपचारसे क्षीरनवी कही जाती है।
__ शंका--अन्य रसोंमें स्थित द्रव्योंका तत्काल ही क्षीर स्वरूपसे परिणमन कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार अमृतसमुद्र में गिरे हुए विषका अमृत रूप परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार पांच महावत, पांच समिति व तीन गुप्तियोंके समूहसे घटित अंजलिपुट में गिरे हुप सब आहारोंका क्षीर स्वरूप परिणमन करनेमें कोई विरोध नहीं है।
वह शक्ति जिनके है वे क्षीरस्नवी कहलाते हैं । उनको नमस्कार हो । सर्पिस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३९ ॥
सर्पिष् शब्दका अर्थ घृत है। जिनके तपके प्रभावसे अंजलिपुटमें गिरे हुए सब आहार घृत स्वरूपसे परिणमते हैं वे सर्पिरवी जिन हैं । उनको नमस्कार हो।
मधुस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ४० ॥
१ करयलणिविखाणि रुक्खाहारादियाणि तक्कालं । पार्वति खीरभावं जीए खीरोसवी रिद्धी ॥ ति.प. ४-१०८१. विरसमायशनं येषां पाणिपुटविक्षिप्तं [-निक्षिप्त ] क्षीररसगुणपरिणामि जायते, येषां वा वचनानि क्षीरवन क्षीणानां संतर्पकाणि भवन्ति ते क्षीराखविणः । त. रा. ३, ३६, २.
२ प्रतिषु ' समुद्दनि ' इति पाठः ।
३ रिसिपाणितलणि खित्तं रूवखाहारादियं पि खणमेले । पावेदि सप्पिरूवं जीए सा सपिायासवी रिद्धी ।। अह्वा दुक्ख पमुहं सवणेण मुर्णिददिव्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा सप्पियासवी रिद्धी॥ ति. प. ४, १०८६१०८७. येषां पाणिपात्रगतमन्नं सक्षमपि सपरिसवीर्यविपाकाना'नोति सर्पिरिव वा येषां भाषितानि प्राणिनां संतपकाणि भवन्ति ते सर्पिरास्रविणः । त. रा. ३, ३६, २.
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