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छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[४, १, ३५. वाहीओ लोए अत्थि ताओ सव्वाओ ठवेदूण आमास-खेल-जल्ल-विठ्ठ-सव्वासहीणमेगसंजोगादिभंगा णाणाकालजिणे' अस्सिदूण परूवेदव्वा, विचित्तचरित्तेण लद्धीणं वइचित्तियाविरोहादो । । णमो मणबलीणं ॥३५॥)
बारहंगुद्दितिकालगोयराणंतह-वंजण-पज्जायाइण्णछदव्वाणि णिरंतरं चिंतिदेवि खेयाभावो मणबलो । एसो मणबलो जेसिमत्थि ते मणबलिणो । एसो वि मणवलो लद्धी, विसिट्ठ. तवोषलेणुप्पज्जमाणत्तादो। कधमण्णहा बारहंगट्ठो मुहुत्तेणेक्केण बहूहि वासेहि बुद्धिगोयरमाबण्णो चित्तखेयं ण कुणेज्ज ? तेसिं मणबलीणं णमो ।
णमो वचिबलीणं ॥ ३६॥ बारसंगाणं बहुवारं पडिवाडि काऊण वि जो खेयं ण गच्छइ सो वचिबलो,
न्याधियां हैं उन सबको स्थापित कर आमाँषधि, खेलौषधि, जल्लौषधि, विष्ठौषधि और साषाधिके एकसंयोगादि रूप भंगोंकी नाना काल सम्बन्धी जिनौका आश्रय करके प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, विचित्र चरित्रसे लब्धियोंकी विचित्रतामें कोई विरोध नहीं है ।
मनबल ऋद्धि युक्त जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३५ ॥
बारह अंगोंमें निर्दिष्ट त्रिकालविषयक अनन्त अर्थ व व्यञ्जन पर्याओंसे व्याप्त छह द्रव्योंका निरन्तर चिन्तन करनेपर भी खेदको प्राप्त न होना मनबल है। यह मनबल जिनके है वे मनबली कहलाते हैं । यह मनबल भी लब्धि है, क्योंकि, वह विशिष्ट तपके प्रभावसे उत्पन्न होता है। अन्यथा बहुत वर्षों में बुद्धिगोचर होनेवाला बारह अंगोंका अर्थ एक मुहूर्तमें चित्तखेदको कैसे न करेगा ? अर्थात् करेगा ही। उन मनवली ऋषियोंको नमस्कार हो।
वचनबली ऋषियोंको नमस्कार हो ॥ ३६॥ बारह अंगोंका बहुत वार प्रतिवाचन करके भी जो खेदको नहीं प्राप्त होता है,
१ प्रतिषु जिणो' इति पाठः ।
२ प्रतिषु 'णिरं चित्तिदे' इति पाठः । ३ बलरिद्धी तिविहप्पा मण-वयण-सरीरयाण भेएण । सुदणाणावरणाए पगडीए वीरयंतरायाए । उक्कस्सरखवसमे मुहुत्तमेकंतरम्मि सयलसुदं । चिंतइ जाणइ जीए सा रिद्धी मणबला णामा । ति.प. ४,१०६०-१०६१. तत्र मनःश्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षे सत्यन्तर्मुहूर्ते सकल श्रुतार्थचिन्तनेऽवदाता मनोबलिनः।त. रा. ३, ३६, २.
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