Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, १, १४. ]
कदिअणियोगद्दारे मंगलत्थळ विचारो
[ १०५
अइपसंगादो | अथवा भूदवली गोदमो चेव, एगाहिप्पायत्तादो । तदो सिद्धं निबद्धमंगलत्तं पि ।
उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खंडाणं । कुदो ? वग्गणामहाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो । ण च मंगलेण विणा भूदबलिभडारओ मंथस्स पारंभदि, तस्स अणाइरियत्तप्पसंगादो । कधं वेयणाए आदीए उत्तं मंगलं सेसदोखंडाणं होदि ? ण, कदीए आदिहि उत्तस्स एदस्सेव मंगलस्स सेसतेवीस अणियोगद्दारेसु पउत्तिदंसणादो | महाकम्मपयडिपाहुडत्तणेण चउवीसण्हमणियोगद्दाराणं भेदाभावादो एगतं । तदो एगस्स एवं मंगलं तत्थ ण विरुज्झदे । ण च एदेसिं तिन्हं खंडाणमेयत्तमेगखंडप्पसंगादो ? ण एस दोसो, महाकम्पयडिपाहुडत्तणेण एदेसि पि एगत्तदंसणा दो । कदि - पास - कम्म- पयडिअणियोगद्दाराणि वि एत्थ विदाणि । तेसिं खंडग्गंथसण्णमकाऊण तिण्णि चेव खंडाणि त्ति किमहं उच्चदे |
प्ररूपक कर्ता हो नहीं सकता, क्योंकि, अतिप्रसंग दोष आता है । अथवा भूतबलि गौतम ही हैं, क्योंकि, दोनों का एक ही अभिप्राय रहा है। इस कारण निबद्ध मंगलत्व भी सिद्ध है।
शंका- आगे कहे जानेवाले तीन खण्डों में किस खण्डका यह मंगल है ?
समाधान - यह आगे कहे जानेवाले तीनों खण्डोंका मंगल है, क्योंकि, वर्गणा और महाबन्ध इन दो खण्डों के आदि में मंगल नहीं किया गया है । और भूतबलि भट्टारक मंगलके विना ग्रन्थका प्रारम्भ करते नहीं है, क्योंकि, ऐसा करनेसे उनके अनाचार्यत्वका प्रसंग आता है ।
शंका - वेदनाखण्डके आदि में कहा गया मंगल शेष दो खण्डोंका कैसे हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें कहे गये इसी मंगलकी शेष तेईस अनुयोगद्वारों में प्रवृत्ति देखी जाती है ।
शंका - महाकर्मप्रकृतिप्राभृत रूपसे चौबीस अनुयोगद्वारोंके कोई भेद न होने से उनके एकता है । अतएव वहां एक ग्रन्थका एक मंगल विरोधको प्राप्त नहीं होता । परन्तु इन तीन खण्डों के एकता नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर उनके एक खण्ड होनेका प्रसंग आवेगा ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, महाकर्मप्रकृतिप्राभृत रूपसे इनके भी एकता देखी जाती है ।
शंका - कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोगद्वारोंकी भी तो यहां प्ररूपणा की गई है। उनकी खण्डग्रन्थ संज्ञा न करके तीन ही खण्ड हैं, ऐसा किस लिये कहा जाता है ?
क. क. १४.
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