Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
११० छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, १४. -सुवण्णविणिम्मिएण अठ्ठत्तरसयट्ठमंगल-णवणिहि-सयलाहरणसहियधवलतुंगचउगोपुरपायारेण सोहियए, तत्तो परं चउण्हं गोउरवाराणमभंतरभागे दोपासट्ठिएहि डझंतसुगंधदव्वाणं गंधामोइयभुवणेहि दो-दोधूवघडएहि समुब्भडए, तत्तो परं तिभूमीएहि अइधवलरुप्पियरासिविणिम्मिएहि सगंगघडिदसुरलोयसारमणिसंघायबहुवण्णकिरणपडिच्छाइएहि वज्जंतमुरवसंघायखबहिरियजीवलोएहि बत्तीसच्छपिडिबद्धबत्तीसपेक्खणयसहियदोद्दोपासाएहि भूसियए, चउमहावहंतरट्टिएहि मउवसुगंधणयणहरवण्णसुरलोगरयणघडियसमुतुंगरुक्खएहि विविवरसुरहिगंधासत्तमत्तमहुवर-महुर-रवविराइयएहि णाणाविहगिरि-सरि-सर-मंडवसंडमंडिएहि चउपासट्ठियजिणिंदयंदपडिबिंबसंबंधेण पत्तच्चणचइत्तरुक्खएहि असोग-सत्तच्छद-चंपयंबवणेहि अइसोहियए, ततो परं रुप्पियचउगोउरसंबद्धसुवण्णाणिम्मियवणवेश्यावेढियए, ततो परं चउण्हं रत्थाणमंतरेसु ट्ठियएहि त्थिरथोरसुरलोयमणित्थंभएहि पादेक्कमट्टत्तरसयसंखाएहि एगेगदिसाए दस
हुए सुवर्णसे निर्मित व एक सौ आठ संख्या युक्त आठ मंगल द्रव्य, नौ निधियों एवं समस्त आभरणोंसे सहित धवल उन्नत चार गोपुर युक्त प्राकारसे सुशोभित है; इसके आगे चार गोपुर द्वारोंके अभ्यन्तर भागमें दोनों पार्श्व भागों में स्थित, जलते हुए सुगन्ध द्रव्योंके गन्धसे भुवनको आमोदित करनेवाले ऐसे दो दो धूपघटोंसे संयुक्त है। इसके आगे तीन भूमियोंसे संयुक्त, अत्यन्त धवल चांदीकी राशिसे निर्मित, अपने अवयवों में लगे हुए सुरलोकके श्रेष्ठ मणिसमूहकी अनेक वर्णवाली किरणोंसे आच्छादित, बजते हुए मृदंगसमूहके शब्दसे जीवलोकको बहरा करनेवाले, तथा बत्तीस अप्सराओंसे सम्बद्ध बत्तीस नाटकोंसे सहित, ऐसे दो दो प्रासादोंसे भूषित है; चार महापों के वीचमें स्थित, मृदु, सुगन्धित एवं नेत्रोंको हरनेवाले वर्णों से युक्त सुरलोकके रत्नोंसे निर्मित ऊंचे वृक्षोसे संयुक्त, अनेक प्रकारकी उत्तम सुगन्धमें आसक्त हुर भ्रमरोंके मधुर शब्दसे विराजित नाना प्रकारके पर्वत, नदी, सरोवर व मण्डपसमूहोंसे मण्डित, तथा चारों पार्श्वभागों में स्थित जिनेन्द्र-चन्द्र के प्रतिबिम्बके सम्बन्धसे पूजाको प्राप्त हुए चैत्यवृक्षोंसे सहित ऐसे अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक व आम्र वनोंसे अतिशय शोभित है; इसके आगे चांदीसे निर्मित चार गोपुरोंसे सम्बद्ध व सुवर्णसे निर्मित ऐसी वनवेदिकासे वेष्टित है; इसके आगे चार वीथियोंके मध्य भागोंमें स्थित, स्थिर व स्थूल स्वर्गलोकके मणिमय स्तम्भोंसे संयुक्त, प्रत्येक एक सौ आठ संख्यासे युक्त, एक एक दिशामें दशसे गुणित एक सौ आठ
१ प्रतिषु 'पदच्छाइयएहि' इति पाठः। २ प्रतिषु 'बत्तीसच्चरा', मप्रतौ 'बत्तीसच्छा' इति पास। ३ प्रतिषु सरिसरमंदवसंदमंदिएहि', मप्रतो 'सरिसरवमंदवसंदमंदियएहि ' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'वणोहि ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org