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४, १, ४१.] कदिअणियोगद्दारे मंगलस्स णिवाणिबद्धत्तविचारो । णमो वद्धमाणबुद्धरिसिस्स ॥ ४४ ॥
वद्धमाणभयवंतस्स पुव्वं कयणमोक्कारस्स किमढें पुणो वि एत्थ णमोक्कारो कदो ? जस्संतियं....मणसा वि णिच्चमिच्चेदस्स णियमस्स आइरियपरंपरागयस्स पदुप्पायणढे कदो ।
(णिबद्धाणिबद्धभेएण दुविहं मंगलं । तत्थेदं किं णिवद्धमाहो अणिबद्धमिदि ? ण ताव णिबद्धमंगलमिदं, महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदियादिचउवीसअणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलटुं तत्तो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो । ण च वेयणाखंडं महाकम्मपयडिपाहुडं, अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो । ण च भूदबली गोदमो, विगलसुदधारयस्स धरसेणाइरियसीसस्स भूदबलिस्स सयलसुदधारयवड्डमाणंतेवासिगोदमत्तविरोहादो। ण चाण्णो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदो अस्थि । तम्हा
वर्धमान बुद्ध ऋषिको नमस्कार हो ॥ ४४ ॥
शंका-जब कि वर्धमान भगवानको पूर्वमें नमस्कार किया जा चुका है तो फिर यहां दुवारा नमस्कार किस लिये किया गया है ?
समाधान—जिसके समीप धर्मपथ प्राप्त हो उसके निकट विनयका व्यवहार करना चाहिये । तथा उसका शिर आदि पांच अंग एवं काय, वचन और मनसे नित्य ही सत्कार करना चाहिये।' इस आचार्यपरम्परागत नियमको बतलानेके लिये पुनः नमस्कार किया गया है।
शंका-निबद्ध और अनिबद्धके भेदसे मंगल दो प्रकार है। उनमेंसे यह मंगल निबद्ध है अथवा अनिबद्ध ?
समाधान- यह निबद्ध मंगल तो हो नहीं सकता, क्योंकि, कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वार रूप अवयवोंवाले महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके आदिमें गौतम स्वामीने इसकी प्ररूपणा की है और भूतबलि भट्टारकने वेदनाखण्डके आदिमें मंगलके निमित्त इसे वहांसे लाकर स्थापित किया है, अतः इसे निबद्ध मानने में विरोध है। और वेदनाखण्ड महाकर्मप्रकृतिप्राभृत है नहीं, क्योंकि, अवयवके अवयवी होनेका विरोध है । और न भूतबलि गौतम ही है, क्योंकि, विकलश्रुतधारक और धरसेनाचार्यके शिष्य भूतबलिको सकल श्रुतके धारक और वर्धमान स्वामीके शिष्य गौतम होनेका विरोध है। इसके अतिरिक्त निबद्ध मंगलत्वका हेतुभूत और कोई प्रकार है नहीं, अतः यह अनिबद्ध मंगल है। अथवा, यह
१ षट्खं. पु. १, पृ. ५४.
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