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१०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, ४४. अणिबद्धमंगलमिदं । अथवा होदु णिबद्धमंगलं । कथं वेयणाखंडादिखंडगंथस्स महाकम्मपयडिपाहुडत्तं ? ण, कदियादिचउवीसअणियोगद्दारोहिंतो एयंतेण पुधभूदमहाकम्मपयडिपाहुडाभावादो । एदेसिमणियोगद्दाराणं कम्मपयडिपाहुडत्ते संते पाहुडबहुत्तं पसज्जदे ? ण एस दोसो, कधंचि इच्छिज्जमाणत्तादो । कधं वेयणाए महापरिणामाए उवसंहारस्स इमस्स वेयणाखंडस्स वेयणाभावो ? ण, अवयवेहिंतो एयंतेण पुधभूदअवयविस्स अणुवलंभादो। ण च वेयणाए बहुत्तमणिमिच्छि ज्जमाणत्तादो। कधं भूदबलिस्स गोदमत्तं ? किं तस्स गोदमत्तेण ? कधमण्णहा मंगलस्स णिबद्धत्तं ? ण, भूदबलिस्स खंडं गंथं पडि कत्तारत्ताभावादो । ण च अण्णण कयगंथाहियाराणं एगदेसस्स पुबिल्लसद्दत्थसंदभस्स परूवओ कत्तारो होदि,
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निबद्ध मंगल भी हो सकता है ।
शंका-वेदनाखण्डादि स्वरूप खण्डग्रन्थके महाकर्मप्रकृतिप्राभृतपना कैसे सम्भव है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंसे एकान्ततः पृथग्भूत महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका अभाव है।
शंका-इन अनुयोगद्वारोंको कर्मप्रकृतिप्राभृत स्वीकार करनेपर बहुत प्राभृत होने का प्रसंग आवेगा?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ऐसा कथंचित् इष्ट ही है। - शंका-महा प्रमाणवाली वेदनाके उपसंहाररूप इस वेदनाखण्डके वेदनापना कैसे सम्भव है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, अवयवोंसे सर्वथा पृथग्भूत अवयवी पाया नहीं जाता। यदि कहा जाय कि इस प्रकारसे बहुत वेदनाओंके माननेका अनिष्ट प्रसंग आवेगा, सो भी नहीं है। क्योंकि वैसा इष्ट ही है।
शंका-भूतबलिके गौतमपना कैसे सम्भव है ? प्रतिशंका-- उनके गौतम होनेसे क्या प्रयोजन है ?
प्र. शं. समाधान - क्योंकि, भूतबलिको गौतम स्वीकार किये बिना मंगलके निबद्धता बन ही कैसे सकती है ?
शंका-समाधान नहीं क्योंकि, भूतबलिके खण्डग्रन्थके प्रति कर्तृत्व का अभाव है । और दूसरेके द्वारा किये गये ग्रन्थाधिकारोंके एक देश रूप पूर्वोक्त शब्दार्थसन्दर्भका
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