Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १२.1 कदिअणियोगद्दारे दसपुस्विपरूवणा जाणदि। भावेण जं जं दिटुं दव्वं तस्स तस्स असंखेज्जपज्जाए जाणदि । एवंविधेभ्यो विपुलमतिभ्यो नम इति यावत् । संपधि विउलमदिजिणाणं णमोक्कारं काऊण सुदणाणजिणाणं णमोक्कारकरणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि(णमो दसपुब्वियाणं ॥ १२ ॥
एत्थ दसपुग्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होति । तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणियोग-पुव्वगय-चूलिया त्ति पंचहियारणिबद्धदिहिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादि कादूण पढ़ताणं दसपुवीए विज्जाणुपवादे' समत्ते रोहिणीआदिपंचसयमहाविज्जाओ सत्तसयदहरविज्जाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति दुक्कंति । एवं दुक्काणं सव्वविजाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुवी। जो पुण ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होतो सो अभिण्णदसपुव्वी णाम । तत्थ अभिण्णदसपुविजिणाणं णमोक्कारं करेमि त्ति उत्तं होदि)
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भवग्रहणों को जानता है। भावकी अपेक्षा जो जो द्रव्य शात है उस उसकी असंख्यात पर्यायोंको जानता है । इस प्रकारके विपुलमति मनःपर्ययशानी जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । अब विपुलमति जिनोंको नमस्कार करके श्रुतज्ञानी जिनोंको नमस्कार करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
दशपूर्वीक जिनोंको नमस्कार हो ॥ १२॥
यहां भिन्न और अभिन्नके भेदसे दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें ग्यारह अंगोंको पढ़कर पश्चात् परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका, इन पांच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवादके पढ़ते समय उत्पादपूर्वको आदि करके पढ़नेवालोंके दशम पूर्व विद्यानुप्रवादके समाप्त होनेपर सात सौ क्षुद्र विद्याओंसे अनुगत रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्यायें 'भगवन् क्या आज्ञा देते हैं ' ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओंके लोभको जो प्राप्त होता है वह भिन्नदशपूर्वी है। किन्तु जो कर्मक्षयका अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाता है। उनमें अभिन्नदशपूर्वी जिनोंको नमस्कार करता हूं, यह सूत्रका अर्थ है।
१ द्वितीयं कालतो जघन्येन सप्ताष्टौ भवग्रहणानि, उत्कर्षेणासंख्येयानि गत्यागल्यादिभिः प्ररूपयति । से. सि. १, २३. त. रा. १, २३, १०. अडाणवमवा हु अवरमसंखेज विउल उक्कसं ॥ गो. जी. ४५७. ___२ अप्रतौ ' दसपुष्वी विज्जापबादे' इति पाठः।
३ रोहिणिपहुदीण महाविज्जाणं देवदाउ पंच सया। अंगुट्ठपसेणारं खुद्दअविज्जाण सत्त सया॥ एत्तण पेसणाई मग्गंते दसमपुचपढणम्मि । णेच्छंति संजमंता ताओ जे ते अभिण्णदसपुत्री ॥ भुवणेसु सुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणामपज्जाया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुची णाम बोद्धव्वा ॥ ति. प. ४, ९९८-१०००. महारोहिण्यादिभिस्त्रिभिरागताभिः प्रत्येकमात्मीयरूपसामाविष्करण-कथनकुशलामिर्वेगवतीमिविद्यादेवताभिरविचलितचरित्रस्य दक्षपूर्व-सपुद्रोत्तरणं दशपूर्वित्वम् । त. रा. ३, ३६, २.
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