Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १, २५.] कदिअणियोगद्दारे महातवरिद्धिपरूवणा
तप्तं दग्धं विनाशितं मूत्र-पुरीष-शुक्रादि येन तपसा तदुपचारेण तप्ततपः । जेसिं भुत्तचउव्विहाहारस्स तत्तलोहपिंडागरिसिदपाणियस्सेव णीहारो णत्थि ते तत्ततवा । एदाए रिद्धीए सहियाण जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि ।
(णमो महातवाणं ॥ २५॥) - अणिमादिअट्टगुणोवेदो जलचारणादिअट्ठविहचारणगुणांलकरियो फुरंतसरीरप्पेहो दुविहअक्खीणलद्धिजुत्तो सव्वोसहिसरूवो पाणिपत्तणिवदिदसव्वाहारे अमियसादसरूवेण पल्लट्टावणसमत्थो सयलिंदेहितो वि अणंतबलो आसी-दिद्विविसलद्धिसमण्णिओ तत्ततवो सयलविज्जाहरो मदि-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणेहि मुणिदतिहुवणवावारो मुणी महातवो' णाम । कस्मात् ? महत्वहेतुस्तपोविशेषो महानुच्यते उपचारेण, स येषां ते महातपसः इति सिद्धत्वात् । अथवा
जिस तपके द्वारा मूत्र, मल और शुक्रादि तप्त अर्थात् दग्ध व विनष्ट कर दिया जाता है वह उपचारसे तप्ततप है। जिनके ग्रहण किये हुए चार प्रकारके आहारका तपे · हुए लोहपिण्ड द्वारा आकृष्ट पानीके समान नीहार नहीं होता वे तप्ततप ऋद्धिके धारक हैं । इस ऋद्धिसे सहित जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है।
महातप ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २५ ॥
जो अणिमादि आठ गुणोंसे सहित है, जलचारणादि आठ प्रकारके चारणगुणोंसे अलंकृत है, प्रकाशमान शरीरप्रभासे संयुक्त है; दो प्रकारकी अक्षीण ऋद्धिसे युक्त है, सर्वोषधि स्वरूप है, पाणिपात्रमें गिरे हुए सब आहारोंको अमृतस्वरूपसे पलटानेमें समर्थ है, समस्त इन्द्रोंसे भी अनन्तगुणे बलका धारक है, आशीविष और दृष्टिविष लब्धियोंसे समन्वित है, तप्ततप ऋद्धिसे संयुक्त है, समस्त विद्याओंका धारक है; तथा मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्यय ज्ञानोंसे तीनों लोकके व्यापारको जाननेवाला है, वह मुनि महातप ऋद्धिका धारक है। कारण कि महत्वके हेतुभूत तपविशेषको उपचारसे महान् कहा जाता है । वह जिनके होता है वे महातप ऋषि है, ऐसा सिद्ध है। अथवा,
................
१ प्रतिषु ' तत्थ ' इति पाठः।
२ तत्ते लोहकडाहे पडिअंबुकणं व जीए भुत्तण्णं । झिज्जदि धाऊहिं सा णियझाणाएहिं तत्तवा ॥ ति. प. ४-१०५३. तप्तायसकटाहपतितजलकणवदाशुशुष्काल्पाहारतया मल-रुधिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहाराः तप्ततपसः । त. रा. ३, ३६, २.
३ मंदरपंतिप्पमुहे महोववांसे करेदि सबै वि। चउसण्णाणबलेणं जीर सा महातवा रिद्धी ॥ ति.प. ४-१०५४. सिंहनिःक्रीडितादिमहोपवासानुष्ठानपरायणयतयो महातपसः। त. रा. ३, ३६, २.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org