Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे यणाखंड
णमो घारगुणवंभचारीणं ॥ २९ ॥
ब्रह्म चारित्रं पंचत्रत-समिति - त्रिगुप्त्यात्मकम्, शान्तिपुष्टिहेतुत्वात् । अघोरा शान्ता गुणा यस्मिन् तदघोरगुणं, अघोरगुणं ब्रह्म चरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिणः । जेसिं तवामाहप्पेण डमरीदि-मारि-दुब्भिक्ख-वइर - कलह-बध-बंधण - रोहादिपसमणसत्ती समुप्पण्णा ते अघोरगुणबम्हचारिणो' त्ति उत्तं होदि । तेसिं अघोरगुणबं भयारीणं णमो इदि उत्तं होदि । एत्थ अकारो किण्ण सुणिज्जदे ? संधिणिसादो । दिट्ठिअमियाणमघोरबंभयारीणं च को विसेसो ? उवजो सज्जदिट्ठीए दिलद्धिजुत्ता दिट्ठिविसा णाम । अघोरबंभयारीणं पुण लद्धी असंखेज्जा सव्वंगगया, एदेसिमंगलग्गवादे वि सयलोवद्दवविणासणसत्तिदंसणादो ! दो अत्थि भेदो ।
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अघोरगुणब्रह्मचारी जिनोंको नमस्कार हो ॥ २९ ॥
I
ब्रह्मका अर्थ पांच व्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि, वह शान्तिके पोषणका हेतु है । अघोर अर्थात् शान्त हैं गुण जिसमें वह अघोरगुण है, अघोरगुण ब्रह्मका आचरण करनेवाले अघोर गुणब्रह्मचारी कहलाते हैं। जिनके तपके प्रभाव से डमरादि (राष्ट्रीय उपद्रव आदि), रोग, दुर्भिक्ष, वैर, कलह, बध, बन्धन और रोध आदिको नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हुई है वे अघोरगुणब्रह्मचारी हैं, यह तात्पर्य है । उन अघोर गुणब्रह्मचारी जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है ।
[ ४, १, २९.
शंका- -' णमो घोरगुणबंभचारीणं' इस सूत्र में अघोर शब्दका अकार क्यों नहीं सुना जाता ?
समाधान - सन्धियुक्त निर्देश होनेसे उक्त अकारका यहां श्रवण नहीं होता ।
शंका - दृष्टि- अमृत और अघोरब्रह्मचारीके क्या भेद है ?
समाधान – उपयोगकी सहायता युक्त दृष्टिमें स्थित लब्धिसे संयुक्त दृष्टिविष कहलाते हैं । किन्तु अघोरब्रह्मचारियोंकी लब्धियां सर्वागगत असंख्यात हैं । इनके शरीरसे स्पृष्ट वायुमें भी समस्त उपद्रवोंको नष्ट करनेकी शक्ति देखी जाती है । इस कारण दोनों में भेद है |
१ अ - काप्रत्योः ' बम्हचारीणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' दमरिदि', मप्रतौ ' दमरीदि ' इति पाठः ।
३ जीए ण होंति मुणिणो खेतम्मि वि चोरपहुदिबाधाओ । काल-महाजुद्धादी रिद्धी साघोरबम्हचारिता || उक्करसक्खउवसमे चारितावरण मोहकम्मस्स । जा दुस्सिमणं णाइस रिद्धी साघोरबम्हचारिता || अहवा—- सव्वगुणेहिं अघोरं महेसिणो बम्हसद्दचारितं । विष्फुरिदाए 'जीए रिद्धी साघोरबम्हचारिता ॥ ति प ४, १०५८ - १०६०. चिरोषितास्खलित ब्रह्मचर्यवासाः प्रकृष्टचारित्रमोहनीयक्षयोपशमात् प्रणष्टदुःस्वप्नाः घोरब्रह्मचारिणः । त. रा. ३, ३६, २.
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