Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १८.] कदिअणियोगदारे पण्णसमणरिद्धिपरूवणा । [८१ बिसदपंचवंचासचारणाणं अट्ठविहचारणेहिंतो एयंतेण पुधत्ताभावादो च । एदेसिं चारणजिणाणं णमो इदि उत्तं होदि ।
कधं चारणाणं अट्ठसंखाणियमो ? ण, इदरेसिं चारणाणमेत्थंतब्भावादो । तं जहाचिक्खल्ल-छार-गोवर-भुसादिचारणाणं जंघचारणेसु अंतब्भावो, भूमीदो चिक्खल्लादीणं कथंचि भेदाभावादो। कुंथुद्देही-मक्कुण-पिपीलियादिचारणाणं फलचारणेसु अंतब्भावो, तसजीवपरिहरणकुसलतं पडि भेदाभावादो। पत्तंकुर-तण-पवालादिचारणाणं पुप्फचारणेसु अंतब्भावो, हरिदकायपरिहरणकुसलत्तेण साहम्मादो । ओस-करवास-धूमरी-हिमादिचारणाणं जलचारणेसु अंतभावो, आउक्काइयजीवपरिहरणकुसलत्तं पडि साहम्मदंसणादो । धूमग्गि-वाद-मेहादिचारणाणं तंतु-सेडिचारणेसु अंतम्भावो, अणुलोम-विलोमगमणेसु जीवपीडाअकरणसत्तिसंजुत्तत्तादो । एवमण्णेसि पि चारणाणमेत्येव अंतब्भावो दहव्यो ।)
(णमो पण्णसमणाणं ॥ १८ ॥)
नहीं है, तथा दो सौ पचास चारण आठ प्रकार चारणोंसे एकान्ततः पृथक् भी नहीं हैं।
इन चारणजिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है। शंका - चारणोंकी आठ संख्याका नियम कैसे बनता है ?
समाधान-नहीं, अन्य चारणोंका इनमें अन्तर्भाव होनेसे उक्त संख्यानियम बन जाता है । वह इस प्रकारसे-कीचड़, भस्म, गोवर और भूसे आदि परसे गमन करनेवालोंका जंघाचारणोंमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, भूमिसे कीचड़ आदिमें कथंचित् अभेद है। कुंथु जीव, मत्कुण और पिपीलिका आदि परसे संचार करनेवालोंका फलचारणों में अन्त- . र्भाव होता है, क्योंकि, इनमें त्रस जीवोंके परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। पत्र, अंकुर, तण और प्रवाल आदि परसे संचार करनेवालोंका पुष्पचारणोंमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, हरितकाय जीवोंके परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा इनमें समानता है। ओस, ओला, कुहरा और बर्फ आदि पर गमन करनेवाले चारणोंका जलचारणों में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, इनमें जलकायिक जीवोंके परिहारकी कुशलताके प्रति समानता देखी जाती है। धूम, अग्नि, वायु और मेघ आदिके आश्रयसे चलनेवाले चारणोंका तन्तुश्रेणीचारणों में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, वे अनुलोम और प्रतिलोम गमन करनेमें जीवोंको पीड़ा न करनेकी शक्तिसे संयुक्त हैं। इसी प्रकार अन्य चारणोंका भी इनमें ही अन्तर्भाव समझना चाहिये।
प्रज्ञाश्रवणोंको नमस्कार हो ॥९॥
१ प्रतिषु ' एदमण्णेसिं ' इति पाठः ।
छ.क. ११.
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