Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, १, १७.]
कदिअणियोगहारे चारण रिद्धिपरूवणा
जल - जंघ - तंतु-फल- पुप्फ-वीय आगास सेडिगइकुसला । अट्ठविहचारणगणा पइरिक्कसुहं पत्रिहरंति' ॥ २१
तत्थ भूमीए इव जलकाइयजीवाणं पीडमकाऊण जलमफुसंता जहिच्छाए जलगमणसमत्था रिसओ जलचारणा' णाम । पउमणिपत्तं व जलपासेण विणा जलमज्झगामिणो जल चारणा त्ति किण्ण उच्चंति ? ण एस दोसो, इच्छिज्जमाणत्तादो । जलचारण - पागम्मरिद्धीणं दोह को विसेसो ? घणपुढवि - मेरुसायराणंतो सव्वसरीरेण पवेससत्ती पागम्मं णाम । तत्थ जीवपरिहरणकउसलं चारणत्तं । तंतु-फल- पुप्फ-बीजचारणाणं पि जलचारणाणं व वत्तव्वं । भूमीए
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जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणीका आलम्बन लेकर गमन में कुशल ऐसे आठ प्रकारके चारणगण अत्यन्त सुखपूर्वक विहार करते हैं ॥ २१ ॥
उनमें जो ऋषि जलकायिक जीवोंको पीड़ा न पहुंचाकर जलको न छूते हुए इच्छानुसार भूमिके समान जलमें गमन करनेमें समर्थ हैं वे जलचारण कहलाते हैं ।
शंका - पद्मिनीपत्रके समान जलको न छूकर जलके मध्यमें गमन करनेवाले जलचारण क्यों नहीं कहलाते ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ऐसा अभीष्ट ही है ।
शंका - जलचारण और प्राकाम्य इन दोनों ऋद्धियोंमें क्या विशेषता है ?
समाधान - सघन पृथिवी, मेरु और समुद्र के भीतर सब शरीर से प्रवेश करनेकी शक्तिको प्राकाम्य ऋद्धि कहते हैं, और वहां जीवोंके परिहारकी कुशलताका नाम चारण ऋद्धि है ।
तन्तुचारण, फलचारण, पुष्पचारण और बीजचारणका स्वरूप भी जलचारणों के
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१ चारणरिद्धी बहुविहवियप्पसंदोहवित्थरिदा || जल-जंघा - फल- पुप्फं-पत्तग्गिसिहाण धूम - मेघाणं । धारामक्कडतंतू - जोदी-मरुदाण चारणा कमसो ॥ ति. प. ४-१०३५. तत्र चारणा अनेकविधाः जल-जंघा तंतु-पत्र- श्रेण्यभिशिखाद्यालंबनगमनाः । त. रा. ३, ३६, २. अइसयचरणसमत्था जंधा विज्जाहिं चरणा मुणओ । जंघाहिं जाइ पढमो नीसं काउं रत्रिकरे त्रि || एगुप्पाएण गओ रुयगवरमिओ तओ पडिनियतो । बीएणं णांदस्सरमिहं तओ एइ तइएणं ॥ पढमेण पंडगवणं बीओप्पाएण गंदणं एइ । तइओप्पाएण तओ इह जंघाचारणो हो (ए) इ || पढमेण माणुसोत्तरनगं स नंदिस्सरं तु बिइएण । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहई || पढमेण नंदणवणे बीओप्पाएण पंडगवणंमि । एइ - दहं तइएणं जो विज्जाचारणो होइ ॥ विशे. भा. ७८९-७९३.
२ अविराहियप्पुका जीवे पदखेवणेहिं जं जादि । धावेदि जलहिमज्झे स च्चिय जलचारणा रिद्धी ॥ वि. प. ४-१०३६.
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