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छक्खडागमे वेयणाखंड
[ ४, १, १७.
विज्जाओ होंति विज्जाहराणं । तेण वेअड्डणिवासिमणुआ वि विज्जाहरा, सयलविज्जाओ छंडिऊण गहिदसंजमविज्जाहरा वि होंति विज्जाहरा, विज्जाविसयविण्णाणस्स तत्थुवलंभादो । पढिदविज्जाणुपवादा वि विज्जाहरा, तेसिं पि विज्जाविसयविण्णाणुवलंभादो | केसिमेत्थ गहणं ? ण ताव वेयडुप्पण्णअसंजदाणं गहणं, तेसिं जिणत्ताभावा दो । परिसेसादो ससदुविहविज्जाहरा एत्थ घेत्तव्वा । दसपुव्वहराणमेत्थ ण ग्गहणं, पउणरुत्तियादो ? ण, तत्थ दसपुव्वविसयणाणुवलक्खियजिणाणं णमोक्कारकरणादो, एत्थ सिद्धासेसविज्जापेसणपरिच्चागेणुवलक्खियजिणाणं विज्जाहरत्तन्भुवगमादो त्ति | सिद्धविज्जाणं पेसणं जे ण इच्छंति केवलं धरति चेव अण्णाणणिवित्तीए ते विज्जाहरजिणा णाम । तेभ्यो नमः ।
णमो चारणाणं ॥ १७ ॥
जल-जंघ-तंतु-फल-पुप्फ-वीय- आगास - सेडीमेएण अट्ठविहा चारणा । उत्तं च
गई तपविद्यायें हैं । इस प्रकार ये तीन प्रकारकी विद्यायें विद्याधरोंके होती हैं । इससे वैताढ्य पर्वत पर निवास करनेवाले मनुष्य भी विद्याधर होते हैं, सब विद्याओंको छोड़कर संयमको ग्रहण करनेवाले भी विद्यावर होते हैं, क्योंकि, विद्याविषयक विज्ञान वहां पाया जाता है। जिन्होंने विद्यानुप्रवादको पढ़ लिया है वे भी विद्याधर हैं, क्योंकि, उनके भी विद्याविषयक विज्ञान पाया जाता है ।
शंका- इन तीन प्रकारके विद्याधरोंमेंसे यहां किनका ग्रहण है ?
समाधान – वैताढ्य पर्वतपर उत्पन्न असंयतों का यहां ग्रहण नहीं है, क्योंकि, वे जिन नहीं हैं । पारिशेष न्यायसे शेष दो प्रकारके विद्याधरोंका यहां ग्रहण करना चाहिये । शंका - दशपूर्वधरोंका ग्रहण यहां नहीं करना चाहिये, क्योंकि, पुनरुक्ति दोष भाता है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, वहां दश पूर्न विषयक ज्ञानसे उपलक्षित जिनको नमस्कार किया गया है, किन्तु यहां सिद्ध हुई समस्त विद्याओंके कार्यके परित्याग से उपलक्षित जिनोंको विद्याधर स्वीकार किया है । जो सिद्ध हुई विद्याओंसे काम लेनेकी इच्छा नहीं करते, केवल अज्ञानकी निवृत्तिके लिये उन्हें धारण ही करते हैं, वे विद्याधर जिन हैं। उनके लिये नमस्कार हो ।
चारण ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ १७ ॥
जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी के भेद से चारण ऋद्धिधारक आठ प्रकार हैं। कहा भी है
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