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८४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, १९. णाणुप्पत्तिविरोहादो । असंजदाणं ण पण्णसमणाणं गहणं, जिणसदाणुउत्तीदो । एदेसिं पण्णसमणजिणाणं णमो । पण्णाए णाणस्स य को विसेसो ? णाणहेदुजीवसत्ती गुरूवएसणिरवेक्खा पण्णा णाम, तक्कारियं णाण; तदो अत्थि भेदो । (णमो आगासगामीणं ॥ १९ ॥
आगासे जहिच्छाए गच्छंता इच्छिदपदेसं माणुसुत्तरपव्वयावरुद्धं आगासगामिणो' त्ति घेत्तव्वा । देव-विज्जाहराणं ण ग्गहणं, जिणसद्दाणुउत्तीदो । आगासचारणाणमागासगामीणं च को विसेसो ? उच्चदे - चरणं चारित्तं संजमो पावकिरियाणिरोहो ति एयहो, तम्हि कुसलो णिउणो चारणो । तवविसेसेण जणिदआगासट्ठियजीव [ -वध ] परिहरणकुसलत्तणेण सहिदो
शक्तिका अभाव होनेपर समस्त श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका विरोध होगा।
यहां असंयत प्रज्ञाश्रवणोंका ग्रहण नहीं है, क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्ति आती है। इन प्रज्ञाश्रवण जिनोंको नमस्कार हो ।
शंका-प्रज्ञा और ज्ञानके बीच क्या भेद है ?
समाधान-गुरूके उपदेशसे निरपेक्ष ज्ञानकी हेतुभूत जीवकी शक्तिका नाम प्रशा है, और उसका कार्य ज्ञान है। इस कारण दोनोंमें भेद है ।
आकाशगामी जिनोंको नमस्कार हो ॥ १९॥ . .
आकाशमें इच्छानुसार मानुषोत्तर पर्वतसे घिरे हुए इच्छित प्रदेशमें गमन करनेवाले आकाशगामी है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहां देव व विद्याधरोंका ग्रहण नहीं है, क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्ति है ।
शंका-आकाशचारण और आकाशगामीके क्या भेद है ?
समाधान -इसका उत्तर कहते हैं- चरण, चारित्र, संयम व पापक्रियानिरोध, इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थात् निपुण है वह चारण कहलाता है । तपविशेषसे उत्पन्न हुई आकाशस्थित जीवोंके [वधके ] परिहारकी कुशलतासे जो सहित
१ दुविहा किरियारिद्धी णहबलगामित्त चारणत्तेहिं । उट्ठीओ आसीणो काउस्सग्गेणं इदरेणं ॥ गच्छेदि जीए या रिद्धी गयणगामिणी णाम। ति.प.४,१०३३-१०३४. पर्यकावस्था निषण्णा वा कायोत्सर्गसरीरा वा पादोद्वारनिक्षेपणविधिमंतरेणाकाशगमनकुशला आकाशगामिनः । त. रा. ३, ३६, २.
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