Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४,१, ५. उक्कस्साणंतो चेव ओहि त्ति-१ ण पढमपक्खो, उक्कस्साणंतादो वदिरित्तदव्व-पज्जायाणमणुवलंभादो । ण च उक्कस्साणंतो चेव ओही, उक्कस्साणंतस्स दोसु वि पासेसु अण्णेसिमभावण तस्स ओहित्तविरोहादो त्ति ? ण पढमपक्खो, अणब्भुवगमादो । ण बिदियपक्खुत्तदोसो 'वि संभवदि, अभिविहिग्गहणादो । ण च एक्कम्हि दुब्भावो विरुज्झदे, अणेयंते एक्कम्हि तदविरोहादो । अधवावयविणासाणं वाचओ अंतसद्दो घेत्तव्यो । ओही मज्जाया उक्कस्साणंतादो पुधभूदा । अन्तश्च अवधिश्च अन्तावधी, न विद्यते तो यस्य स अनन्तावधिः । अभेदाज्जीवस्यापीय संज्ञा । अनन्तावधयश्च ते जिनाश्च अनन्तावधिजिनाः। तेभ्यो नमः । - अणंतोहिजिणा णाम केवलणाणिणो, तदो ते सव्वजिणेहिंतो महल्ला । तेसिं पुब्वमेव णमोक्कारो किण्ण कदो? ण, केवलणाणमहल्लत्तजाणावणगुणेण केवलणाणादो महल्लाए सव्वोहीए पुल्वमेव णमोक्कारकरणे विरोहाभावादो। मिच्छत्तादो सम्मत्तस्स माहप्पं जाणिज्जदि त्ति सम्मत्तभत्तीए मिच्छत्तस्स णमोक्कारो किण्ण कीरदे ? ण एस दोसो,
है ? इनमें प्रथम पक्ष तो बनता नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनन्तको छोड़कर द्रव्य व उनकी पर्यायें पायी नहीं जाती। और वह उत्कृष्ट अनन्त ही हो सो भी नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनन्तके दोनों ही पार्श्व भागोंमें अन्य वस्तुओंका अभाव होनेसे उसे अवधि मानने में विरोध है ?
.. समाधान-शंकाकारने जिन दो पक्षोंमें दोष दिखाये हैं उनमेंसे प्रथम पक्ष तो है ही नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार ही नहीं किया गया। द्वितीय पक्षमें कहा गया दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, यहां अभिविधिका ग्रहण है। दूसरी बात यह कि एक वस्तुमें द्वित्वका विरोध भी नहीं है, क्योंकि, अनेकान्तका आश्रय कर एकमें द्वित्वका अविरोध है । अथवा, यहां अवयविनाशोंका वाचक अन्त शब्द ग्रहण करना चाहिये। अवधिका अर्थ मर्यादा है। वह उत्कृष्ट अनन्तसे पृथग्भूत है। अन्त और अवधि जिसके नहीं हैं वह अनन्तावधि
पद होनेसे जीवकी भी यह संज्ञा है। अनन्तावधि रूप जो जिन वे अनन्तावधि जिन हैं, उनको नमस्कार हो।
शंका-अनन्तावधिका अर्थ केवलज्ञानी है, इसलिये वे सर्वावधि जिनोंसे महान् हैं । उनको पहिले ही नमस्कार क्यों नहीं किया ?
समाधान -नहीं, क्योंकि, केवलज्ञानके माहात्म्यका ज्ञान कराने रूप गुणकी अपेक्षा केवलज्ञानसे सर्वावधि महान् है । अतएव उसे पहिले ही नमस्कार करने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-मिथ्यात्वसे चूंकि सम्यक्त्वका माहात्म्य जाना जाता है, अतः सम्यक्त्वकी भक्तिमें मिथ्यात्वको नमस्कार क्यों नहीं किया जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार मति, श्रुत और अवधि
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