Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा तोसमेत्थ वुड्डीए अभावो कधं णव्वदे ?
कालो चउण्ण वुडी कालो भजियव्यो खेत्तवुडीए ।
उडीए दव्य पज्जय भजिदव्या खेत्त-काला य' ॥ १२ ॥ एदम्हादो वग्गणासुत्तादो णव्वदे । पुणो बहुरूवधरिदखंडाणि छोडिय एगरूवधरिदबिदियवियप्पदव्वमवविदभागहारस्स एवं पडि समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगखंडं तदियवियप्पदव्वं होदि । विदियभाववियप्पं तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे तदियभाववियप्पो होदि। खेत्त-काला जहण्णा चेव । सेसखंडाणि अवणेदूण एगरूवधरिदं तदियवियप्पदव्वमवट्ठिदविरलणाए समखंडं कादूण दिण्णे चउत्थवियप्पदव्वं होदि । तदियभावम्हि तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे चउत्थो भाववियप्पो होदि । एवमव्वामोहेण पंचम-छट्ठ-सत्तमवियप्पप्पहुडि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता दव्व-भाववियप्पा उप्पाएयव्वा । तदो जहण्णखेत्तस्सुवरि एगो आगासपदेसो वड्ढावेदव्यो । एवं वड्डाविदे खेत्तस्स बिदियवियप्पो होदि । कालो पुण
शंका-यहां उनकी वृद्धिका अभाव है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान--- कालकी वृद्धि होनेपर द्रव्यादि चारोंकी वृद्धि होती है। क्षेत्रकी वृद्धिहोनेपर कालवृद्धि भजनीय है, अर्थात् वह होती भी है और नहीं भी होती है । द्रब्य और भावकी वृद्धि होने पर क्षेत्र और कालकी वृद्धि भजनीय है ॥ १३ ॥
इस वर्गणासूत्रसे जाना जाता है ।
पश्चात् बहुरूपधरित खण्डोंको छोड़कर एक रूपधरित द्वितीय विकल्प रूप द्रव्यको अवस्थित भागहारके प्रत्येक रूपके ऊपर समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड तृतीय विकल्प रूप द्रव्य होता है। द्वितीय भावविकल्पको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर तृतीय भावविकल्प होता है । क्षेत्र और काल जघन्य ही रहते हैं। शेष खण्डोंको छोड़ करके एक रूपधरित तृतीय विकल्प रूप द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर चतुर्थ विकल्प रूप द्रव्य होता है । तृतीय भावविकल्पको तत्यायोग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर चतुर्थ भावविकल्प होता है। इस प्रकार अभ्रान्त होकर पंचम, छठा, सातवां आदि अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य और भावके विकल्पोंको उत्पन्न करना चाहिये । तत्पश्चात् जघन्य क्षेत्रके ऊपर एक आकाशप्रदेश बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ानेपर क्षेत्रका द्वितीय विकल्प होता है । परन्तु काल जघन्य ही रहता है।
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म. बं. १, पृ. २२. गो. जी. ४१२. काले चउण्ड वुड्डी कालो भइयब्यु खेत्तवुडीए। वुडीए दबपन्जव भइयव्वा खित्त काला उ ॥ विशे. मा. ६२० (नि. ३६ ). नं. सू. गा. ५४.
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