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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
दादाश्री : उस अनुभव को याद रखे तो छूट सकता है। हम तो हर क्षण याद रखनेवाले।
प्रश्नकर्ता : ऐसा तो शायद ही कोई याद रखनेवाला होगा। नहीं तो कीचड़ में उतरता ही जाता है।
दादाश्री : हाँ, यह तो कीचड़ ही है। गहरा कीचड़ है। उसमें उतरता ही जाता है। रिसर्च तो, जो निर्विषयी हो, वही कर सकता है। विषयी इंसान रिसर्च कर ही नहीं सकता।
सुख के साधन या अशुचि का संग्रहस्थान?
जहाँ भ्रांतिरस में एक होकर जगत् डूबा हुआ है। भ्रांतिरस यानी वास्तव में रस नहीं है, फिर भी मान बैठा है! न जाने क्या मान बैठा है! इस सुख का विश्लेषण किया जाए तो निरी उल्टियाँ होंगी!
इस शरीर की राख बन जाती है और उस राख के परमाणुओं से वापस शरीर बनता है। अनंत जन्मों की राख के ये परिणाम हैं। निरी जूठन है! यह तो जूठन की भी जूठन और उसकी भी जूठन! वही की वही राख। वही के वही परमाणु सारे। उसी से फिर बनता रहता है! बर्तन को अगले दिन मांजने से वे साफ दिखते हैं, लेकिन मांजे बगैर अगर उसी में रोज़ खाते रहें तो क्या वह गंदगी नहीं है?
पुद्गल के जो गुण हैं न, जो स्थल गुण हैं जो ऐसे हैं कि आँखों से दिखाई दें, कान से सुनाई दें, यों स्पर्श से अनुभव में आएँ, नाक को सुगंध दें, जीभ को स्वाद दें। पुद्गल के गुण और प्राकृतिक गुण दोनों एकत्रित हुए हैं। प्राकृतिक गुण मिश्र चेतन के हैं और पुद्गल के जो गुण हैं, उन सबके एक होने से यह खून-पीप और यह सब खड़ा हो गया और संसार खड़ा हो गया है। इसी से यह पूरा जगत् उलझन में हैं। खुद की अज्ञानता की वजह से उसे इस सारी अशुचि का भान