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किस समझ से विषय में... (खं-2-1)
दादाश्री : वह भाव तो है ही। वह तो अहिंसक भाव कहलाता है। वह चीज़ अलग है और यह तो जिसने स्त्री से संबंधित विषय को जीता, उसने सबकुछ जीत लिया।
प्रश्नकर्ता : मैंने ब्रह्मचर्यव्रत लेने के बाद एक महीने तक कृपालुदेव का पद 'निरखीने नवयौवना' गाया था।
दादाश्री : जो यह पद गाए न, उनका साफ हो जाता है। यह पद तो आपको रोज़ गाना चाहिए, दो-दो बार गाना चाहिए। सिर्फ विषय को जीत लिया तो पूरा जगत् जीत लिया, बस! भले ही फिर कुछ भी खाओ या पीओ, उसमें से कुछ भी बाधक नहीं होगा लेकिन जिसने यह जीत लिया, उसने पूरा जगत् जीत लिया। सिर्फ यही, इंसान यहीं पर फँसता है। विषय को जीत लिया तो फिर दुनिया का राजा न! कर्म बंधन ही नहीं होगा न! उसमें से तो निरे कर्म, भयंकर कर्म बंधते हैं। एक ही बार का विषय कितने ही जीवों को खत्म कर देता है। उन सभी जीवों के साथ ऋणानुबंध बंध जाता है। अतः इतना, सिर्फ विषय को जीत लिया तो बहुत हो गया।
मजबूरी से पाशवता प्रश्नकर्ता : आगे आपने कहा है कि शादी करने जैसा तो सत्युग में था। कलियुग में तो शादी करने जैसा है ही नहीं।
दादाश्री : बाकी, इसमें शादी करने जैसा है ही क्या? यह तो नासमझी की वजह से शादी करते हैं, वर्ना शादी करते ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : मैंने एक चीज़ देखी है कि लोगों को यह मार्ग चाहिए, ब्रह्मचर्य का, लेकिन मिलता नहीं है।
दादाश्री : हाँ, नहीं मिलता। ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) होना चाहिए न, वचनबलवाला चाहिए। खुद अकेले अपने आप ही