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नहीं चलना चाहिए, मन के कहे अनुसार (खं-2-५)
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दादाश्री : मैं मन की वह बात नहीं कर रहा हूँ। मज़े का और मन का कोई लेना देना नहीं है।
प्रश्नकर्ता : मज़ा नहीं आता तब फिर ऐसा लगता है कि सामायिक में नहीं बैठना है।
दादाश्री : मज़ा क्यों नहीं आता, वह मैं जानता हूँ। प्रश्नकर्ता : मुझे सामायिक में कुछ दिखता ही नहीं है।
दादाश्री : कैसे दिखेगा लेकिन, जहाँ ये सारी गड़बड़ चल रही हो?
प्रश्नकर्ता : जब खुद को पता चलेगा कि ये सब गड़बड़ियाँ की हैं, उसके बाद दिखेगा न?
दादाश्री : नहीं, लेकिन पहले तो खुद को वहाँ तक समझ पहुँची ही नहीं है न! जब तक उसे वह समझ में नहीं आएगा, तब तक दिखेगा कैसे? ये क्या कहना चाहते हैं, वही समझ नहीं पहुँची न? उसमें दृष्टांत दे रहा हूँ, गाड़ी का दृष्टांत बताया, मिकेनिकल का दृष्टांत बताया, लेकिन एक भी समझ पहुँच नहीं रही है अंदर। अब कोई क्या करे?
प्रश्नकर्ता : फिल्म की तरह दिखना चाहिए न?
दादाश्री : कैसे देखेगा लेकिन? आप देखनेवाले नहीं हो, गाड़ी के मालिक नहीं हो न? मालिक बनोगे तो दिखेगा। अभी तो आप बैल के कहे अनुसार चल रहे हो। इसलिए उसे कोई फिल्म नहीं दिखती। खुद के निश्चय से चले, उसे दिखता है सबकुछ।
प्रश्नकर्ता : सामायिक करने में इन्टरेस्ट नहीं है, इसलिए ऐसा होता है न?
दादाश्री : इन्टरेस्ट नहीं हो, उसे चला लेंगे, इसे नहीं चला सकते। इसके जैसी मूर्खता कोई करता होगा? तो वह क्या देखकर करता होगा?