Book Title: Samaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 446
________________ अंतिम जन्म में भी ब्रह्मचर्य तो आवश्यक (खं-2-१७) हम आज्ञा देकर संयम रखवाते हैं। संयम आज्ञा से आता है। आज्ञा में रहने से संयम आता है। प्रश्नकर्ता : इन सब का आत्मा का आनंद और उल्लास इतना बढ़ा दीजिए कि अन्य कहीं सुख खोजने जाना ही न पड़े। दादाश्री : वह तो बहुत बढ़ा दिया है, लेकिन अब भी इन लोगों को अंदर अभिप्राय रहता है कि इस विषय में ठीक है, यह अच्छा है। उन सभी अभिप्रायों को मैं तोड़ रहा हूँ। एक अक्षर जितना भी अभिप्राय नहीं रखना चाहिए। प्रश्नकर्ता : सभी को ऐसा अभिप्राय थोड़े ही होता है? दादाश्री : ऐसे तो कोई ही होता है। वह भी सीधे नहीं मिलते। मन तो बिगड़े हुए होते हैं उनके भी, शरीर बिगड़ा हुआ नहीं होता, फिर भी सीधे तो नहीं कहलाएँगे न?! प्रश्नकर्ता : हमारे पूरे मन-वचन-काया-चित्त-बुद्धि-अहंकार, सभी में आत्मा का उल्लास क्यों व्याप्त नहीं हो जाता पूरा का पूरा? दादाश्री : हाँ। व्याप्त हो जाता है, लेकिन भोग कहाँ पाता है? अभी तो वह पिछला घाटा है। पिछला जो पूरण किया है, वह गलन हो रहा है, उसमें एकाकार हो जाता है। जितनी जलेबी तुम्हें खानी हो, उतनी खाना, बाकी जलेबियाँ अगर तुम फेंक दो, तो जलेबी क्या तुम पर दावा करेंगी? प्रश्नकर्ता : लेकिन विषय कैसे दावा करता है? दादाश्री : वह तो आपको ऐसा लगता है कि सामनेवाला दावा नहीं कर रहा है। सामनेवाला दावा नहीं करे तो उसमें भी कोई परेशानी नहीं है, लेकिन इसमें तो परमाणु दावा करते हैं और इन परमाणुओं का तो इतना इफेक्ट होता है कि ओहोहो, आश्चर्यजनक इफेक्ट होता है!

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