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नहीं चलना चाहिए, मन के कहे अनुसार (खं-2-५)
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अनुसार ही किया है। यह सिद्धांत जो है, वह ज्ञान से तय नहीं किया है। 'मन' ने ऐसे कहा कि, इसमें क्या मज़ा है? ये लोग शादी करके दुःखी है। ऐसा है, वैसा है, 'मन' ने ऐसी जो दलीलें की, उन दलीलों को एक्सेप्ट करके तुम ने स्वीकार किया।
प्रश्नकर्ता : तो ज्ञान से यह सिद्धांत नहीं पकड़ा है, अभी तक?
दादाश्री : ज्ञान से कहाँ पकड़ा है? यह तो अभी भी मन की दलील पर चला है। अब तुम्हें ज्ञान मिला है, तो अब ज्ञान से उस दलील को तोड़ दो। उसका चलन ही बंद कर दो। क्योंकि दुनिया में सिर्फ आत्मज्ञान ही ऐसा है कि जो मन को वश कर सकता है। मन को दबाकर नहीं रखना है। मन को वश करना है। वश यानी जीतना है। हम दोनों किच-किच करें, तो उसमें जीतेगा कौन? तुझे समझाकर मैं जीत जाऊँ तो फिर तू परेशान नहीं करेगा न? और बिना समझाए जीत जाऊँ तो?
प्रश्नकर्ता : समाधान हो जाए तो मन कुछ भी नहीं कहेगा।
दादाश्री : हाँ, समाधानवाला व्यवहार होना चाहिए। तुम्हें यह ब्रह्मचर्य का किसने सिखाया? ब्रह्मचर्य को ये लोग क्या समझें? ये तो ऐसा समझा है कि 'घर में झगड़े है, इसलिए शादी करने में मज़ा नहीं। अब अकेले पड़े रहें तो अच्छा है।'
प्रश्नकर्ता : क्या ऐसा है कि मन जितना वैराग्य बताता है, उतना ही वापस एक दिन ऐसा भी बताएगा।
दादाश्री : मन का स्वभाव क्या है? वह विरोधाभासी है, वह दोनों तत्त्व बताता है। इसलिए सावधान रहने को कहता हूँ।
प्रश्नकर्ता : एक बार मन ब्रह्मचर्य का, वैराग्य का बताएगा, वैसे ही राग भी बताएगा, ऐसा है?
दादाश्री : हाँ, बिल्कुल! फिर वह राग का दिखाएगा।