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'विषय' के सामने विज्ञान से जागृति ( खं-2-१५)
तो उसमें हर्ज नहीं है क्योंकि जब ढीला हो ही गया है तो फिर उसमें हर्ज ही क्या ? उसी को ढीला पड़ना कहते हैं न ! लेकिन यहाँ तो तुमने टाइट रखा है, उसे टाइट ही रखना है, और यदि वह शक्ति ऊर्ध्वगामी हो गई तो बहुत काम निकाल देगी।
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प्रश्नकर्ता : वह किस प्रकार के दोष से ढीला होना शुरू होता है ?
दादाश्री : संयम, असंयम हुआ कि ढीला हो ही जाता है। संयम जब तक संयम भाव में रहता है, तब तक ढीला नहीं पड़ता । यों कम-ज़्यादा होता रहे तो उसमें हर्ज नहीं है। लेकिन वह संयम टूटा कि फिर हो चुका। वह संयम कब टूटता है ? कि 'व्यवस्थित' के पिछले संधान हों, तब टूटता है । और टूटने के बाद फिर उसे मटियामेट कर देता है।
मूर्च्छा चली जाए तो फिर हर्ज नहीं । मूर्च्छा ही निकालनी है। ‘मेरी मूर्च्छा चली गई' ऐसा कहने से कुछ नहीं होगा, मूर्च्छा तो एक्ज़ेक्ट रूप से जानी ही चाहिए। और वह भी ज्ञानीपुरुष से टेस्ट करवा लेना चाहिए कि 'साहब, मेरी मूर्च्छा गई या नहीं, वह टेस्ट करके दीजिए।' वर्ना अंदर तो ऐसी ऐसी वकालत चलती है कि, 'बस, अब सारी मूर्च्छा चली गई है, अब कोई हर्ज नहीं है!' यानी वकालत करनेवाले बहुत हैं न! इसलिए जागृत रहना। जहाँ अपराध होने की संभावना हो, ऐसी जगह पर से खिसक जाना। आत्मा तो दिया है और वह आत्मा असंग स्वभाव का है, निर्लेप स्वभाव का है। लेकिन अनंत जन्म से पुद्गल की खेंच है। आप अलग हुए, लेकिन पुद्गल की खेंच छोड़ती नहीं है न ! वह खेंच जाती नहीं है न! स्त्री-पुरुष के आकर्षण में वह जागृति नहीं रखी तो पुद्गल की खेंच उसे अंधेरे में डाल देगी।
अंत में तो आत्मरूप ही होना है
प्रश्नकर्ता : जब से ब्रह्मचर्य की विचारणा शुरू हुई है, तब