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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
से उस तरफ मज़बूत होने लगा है। तो साथ ही साथ अंदर यह अहंकार भी खड़ा होने लगा है, यह भी परेशान करता है कई बार।
दादाश्री : कैसा अहंकार खड़ा होता है?
प्रश्नकर्ता : 'मैं कुछ हूँ, मैं कितना अच्छा ब्रह्मचर्य पालन करता हूँ' ऐसा।
दादाश्री : वह तो निर्जीव अहंकार है। प्रश्नकर्ता : अंदर इसकी खुमारी भर गई हो, ऐसा हो जाता
है।
दादाश्री : हाँ, लेकिन फिर भी वह सारा तो निर्जीव अहंकार है। मरा हुआ इंसान उठ बैठे तो क्या हमें वहाँ से भाग जाना चाहिए? वर्ना ब्रह्मचर्य का सही अर्थ क्या है कि ब्रह्म में चर्या । शुद्धात्मा में ही रहना, वही ब्रह्मचर्य कहलाता है। लेकिन ये लोग तो ब्रह्मचर्य का क्या मतलब निकालते हैं? नल को डाट लगा दो। लेकिन दूध पीया, उसका क्या होगा? पूरे जगत् ने विषय को विष कहा है। लेकिन हम कहते हैं, 'विषय विष नहीं हैं, लेकिन विषय में निडरता, वह विष है।' वर्ना महावीर भगवान को बेटी कैसे होती? जगत् बात को समझा ही नहीं। रिलेटिव में ब्रह्मचर्य होना चाहिए, लेकिन यह तो वापस एक ही कोने में पड़े रहते हैं और ब्रह्मचर्य का ही आग्रह रखते हैं और उसी का दुराग्रह रखते हैं। ब्रह्मचर्य के आग्रही होने में हर्ज नहीं है, लेकिन अगर दुराग्रही हो गए तो उसमें हर्ज है। आग्रह, वह अहंकार है और दुराग्रह, वह ज़बरदस्त अहंकार है। ब्रह्मचर्य का दुराग्रह किया तो भगवान कहते हैं, 'बेकार है' फिर भले ही ब्रह्मचर्य पालन कर रहा हो।
प्रश्नकर्ता : सभी चीज़ों में मुझे किसी के दोष नहीं दिखते, लेकिन ब्रह्मचर्य के बारे में मुझे कोई कुछ उल्टा कहे तो मेरा दिमाग घूम जाता है, तुरंत ही उसके दोष दिखने लगते हैं।