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स्पर्श सुख की भ्रामक मान्यता (खं-2-८)
प्रश्नकर्ता : कईयों को तो इसमें रुचि ही नहीं होती, रुचि उत्पन्न भी नहीं होती और कईयों में वह रुचि बहुत अधिक भी होती है। वह पहले का लेकर ही आया होता है न?
दादाश्री : सिर्फ यह विषय ही ऐसा है कि इसमें बहुत गड़बड़ हो जाती है। एक बार विषय भोगा कि फिर उसका चित्त वहीं का वहीं जाता है ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वह पूर्व का लेकर आया होता है न
वैसा ?
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दादाश्री : उसका चित्त वहीं का वहीं जाता है, वह पूर्व का लेकर नहीं आया। लेकिन फिर उसका चित्त निकल ही जाता है, हाथ से ! खुद मना करे फिर भी निकल जाता है। इसलिए अगर ये लड़के ब्रह्मचर्य के भाव में रहें तो अच्छा है और फिर अपने आप जो स्खलन होता है, वह तो गलन कहलाता है। रात में हो गया, दिन में हो गया, वह सब गलन कहलाता है लेकिन इन लड़कों को यदि एक ही बार विषय छू गया हो न तो फिर दिन-रात उसी के सपने आते रहेंगे ।
प्रश्नकर्ता : ये जो खराब विचार आते हैं, वे भी चित्त के बगैर आ सकते हैं ?
दादाश्री : हाँ, चित का और विचार का कोई लेना-देना
नहीं।
प्रश्नकर्ता : ऐसा मान लें कि 'मुझे बाहर से किसी चीज़ का विचार आया तो वह बाहर की चीज़ अपने चित्त का हरण करती है।' ऐसा है या नहीं ?
दादाश्री : नहीं, उन दोनों चीज़ों का बैलेन्स नहीं है। यह हो तो यह होगा ही, ऐसा संभव नहीं है। शायद हो सकता है, लेकिन यह हो तो यह होगा ही, ऐसा नहीं है। कई बार सिर्फ