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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
ने ही ले लिया है। इसलिए मन के कहे अनुसार ही चल रहा है। दादा का सत्संग हो तब भी मन बताता है न, उसी तरफ वह खिंच जाता है। लेकिन कुछ बातों में मन की नहीं सुनता हूँ, जब सत्संग में आना हो तब मन वह सब बताता है, लेकिन उस ओर ध्यान नहीं देता । सत्संग में आ जाता हूँ।
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तो इस मन से जो दोष हो रहे हों, उन्हें कैसे खत्म करना चाहिए ?
दादाश्री : अपना ज्ञान लेने के बाद दोष होते ही नहीं हैं
न।
प्रश्नकर्ता : हाँ, दोष तो नहीं होते। इसके बावजूद दूसरी ओर दृष्टि आकृष्ट हो जाती है, तो इसमें पूरा काम मन का ही है न?
दादाश्री : हाँ, मन तो होता ही है। लेकिन अपना 'ज्ञान' ज्ञान में रहता है न! 'ज्ञान' को ज्ञान में रखना चाहिए। 'ज्ञान' को अज्ञान में दाखिल नहीं होने देना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : मतलब अगर ऐसा हुआ तो जो हो रहा है, उसे 'देखते रहें' ऐसा ?
दादाश्री और : कुछ भी नहीं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन जो विषय है, उसमें तो देखना भी जोखिमवाला है न! कब स्लिप हो जाए, वह तो कह ही नहीं सकते न !
दादाश्री : कुछ नहीं होगा। खुद ज्ञाता - द्रष्टा रहे तो कुछ नहीं होगा। स्लिप हो जाएँगे, ऐसा कह ही नहीं सकते।
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प्रश्नकर्ता लेकिन वह डिसाइड कैसे कर सकते हैं, कि खुद ज्ञाता - द्रष्टा में है ?