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तितिक्षा के तप से गढ़ो मन-देह (खं-2-१२)
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ज्ञानियों ने नवाज़ा है उणोदरी तप को हमने ठेठ तक उणोदरी (जितनी भूख लगे उससे आधा भोजन खाना) तप रखा था! दोनों वक्त ज़रूरत से कम ही खाते थे, हमेशा के लिए! कम ही खाते थे ताकि अंदर निरंतर जागृति रहे। उणोदरी तप यानी क्या कि रोज़ चार रोटी खाते हों तो फिर दो कर दें, उसे उणोदरी तप कहते हैं। ऐसा है न, आत्मा आहारी नहीं है, लेकिन यह देह है, पुद्गल है, वह आहारी है और देह यदि भैंस जैसी हो जाए, पुद्गल शक्ति यदि बढ़ जाए तो आत्मा को निर्बल कर देती है।
प्रश्नकर्ता : उणोदरी करने का जब बहुत मन होता है, तभी अधिक खा लिया जाता है!
दादाश्री : उणोदरी तो हमेशा रखनी चाहिए। बिना उणोदरी के तो ज्ञान-जागृति रह ही नहीं सकती। यह जो आहार है, वही खुद दारू है। हम जो आहार खाते हैं, उससे अंदर दारू बनती है। फिर पूरे दिन दारू का नशा रहता है और नशा रहे तो जागृति बंद हो जाती है।
प्रश्नकर्ता : उणोदरी और ब्रह्मचर्य में कितना कनेक्शन है?
दादाश्री : उणोदरी से तो अपनी जागृति अधिक रहती है। उसी से ब्रह्मचर्य रहेगा न!! उपवास करने के बजाय उणोदरी अच्छी, लेकिन हमें ऐसा भाव रखना है कि 'उणोदरी रखनी चाहिए' और खाना खूब चबाकर खाना। पहले दो लड्डू खाते थे तो अब आप उतने टाइम में एक लड्डू खाओ। तो टाइम उतना ही लगेगा, लेकिन कम खाया जाएगा। 'मैंने खाया', ऐसा लगेगा
और उणोदरी का लाभ मिलेगा। ज़्यादा टाइम तक चबाएँगे तो बहुत लाभ मिलेगा।
प्रश्नकर्ता : यदि उणोदरी करते हैं, तो खाना खाने के बाद दो-तीन घंटे में अंदर से खाने की इच्छा होती रहती है।