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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
भी नहीं डालता। आप जैसे-जैसे आज्ञा में रहते जाओगे, वैसे-वैसे पहले का जो छू चुका होगा, जैसे कि चंद्र ग्रहण लिखा होता है कि आठ बजे से एक बजे तक, मतलब आठ बजे शुरू होता है और फिर एक बजे के बाद फिर से चंद्र ग्रहण नहीं होता। उसी तरह आज्ञा में रहा करो ताकि जो ग्रहण हो गया है, वह छूट जाए और नया जोखिम उड़ जाए तो फिर कोई परेशानी नहीं रहेगी न!
चित्त की पकड़, छूटती है ऐसे.... जो चित्त को डिगा दे, वे सभी विषय हैं। ज्ञान से बाहर जिस-जिस चीज़ में चित्त जाता है, वे सभी विषय हैं।
प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि भले ही कैसे भी विचार आएँ, उसमें हर्ज नहीं है लेकिन चित्त वहाँ पर जाए, उसमें हर्ज है।
दादाश्री : हाँ, चित्त का ही झंझट है न! चित्त भटकता है, वही झंझट है न! विचार तो चाहे कैसे भी हों, उसमें हर्ज नहीं है लेकिन इस ज्ञान के मिलने के बाद चित्त विचलित नहीं होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : यदि कभी ऐसा हो जाए तो उसका क्या?
दादाश्री : हमें वहाँ पर फिर ऐसा पुरुषार्थ करना पड़ेगा कि 'अब ऐसा नहीं होगा'। पहले जितना जाता था, उतना ही अभी भी जाता है?
प्रश्नकर्ता : नहीं, उतना स्लिप नहीं होता, फिर भी पूछ रहा हूँ।
दादाश्री : नहीं, लेकिन चित्त तो जाना ही नहीं चाहिए। मन में भले ही कैसे भी विचार आएँ, लेकिन उसमें हर्ज नहीं है। उन्हें हटाते रहो। उसके साथ बातचीत का व्यवहार करो कि फलाना मिलेगा तो वह सब कब करोगे? उसके लिए गाड़ियाँ, मोटरे वगैरह कहाँ