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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
दादाश्री : वह भी हम जानते हैं न! हम जमा नहीं करते! भले ही कितना भी आप प्रॉमिस दो फिर भी जमा नहीं करते। हम जमा कब करते हैं? वैसा वर्तन देखते हैं, तब।।
प्रश्नकर्ता : यह एक बहुत बड़ा रोग हो गया है। खुद पर ज़रूरत से ज्यादा विश्वास हो गया है, बेकार ही।
दादाश्री : भान ही नहीं है न, किसी भी तरह का। खुद पर और पराए पर भान ही नहीं है।
प्रश्नकर्ता : हम फाइल का तिरस्कार करें तो अंदर से ऐसा बताता है कि 'वह हमें गलत समझेगी।'
दादाश्री : गलत ही समझना चाहिए। उसे ऐसा लगना चाहिए कि हम पागल है। हमें किसी भी तरीके से तोड देना है और बाद में उसका इलाज हो जाएगा। यह बैर बंधा होगा, उसका इलाज हो जाएगा।
प्रश्नकर्ता : जब तक एक जगह पर भी फँसा हुआ रहे, तब तक दूसरी शक्ति प्रकट नहीं होती।
दादाश्री : यह तो मीठा पोइज़न है, पोइज़न और वह भी मीठा!
और 'फाइल' आए, उस समय तो सख्त हो ही जाना चाहिए तभी ‘फाइल' काँपेगी! 'यूज़लेस फेलो' ऐसा भी कह देना अकेले में, ताकि वह बैर रखे। चिढ़ जाए तो भी हर्ज नहीं। चिढ़ जाए तो राग खत्म हो जाएगा, आसक्ति खत्म हो जाएगी सारी और वह समझ भी जाएगी कि अब यह फिर से मेरे हाथ में नहीं आएगा। वर्ना फिर वह मौका ढूँढती रहेगी। अब यह सब सँभालना। ___फाइल तो अपने नज़दीक आए न, तभी से मन में कड़वा ज़हर जैसा हो जाना चाहिए, अभी ये कहाँ से? यह तो चोर नीयत