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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
प्रश्नकर्ता: ऐसा फोर्स होता है ?
दादाश्री : उससे ज़्यादा होता है और कम भी होता है। उसका कोई नियम नहीं है।
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सिद्धांत क्या कहता है ? गरम नाश्ता खाओ। ठंडा मत लेना । फिर भी रोज़ दो मठिया खिलाते हैं। मन अगर कहे कि, 'पाँच मठिया खाने हैं'। तब हम कहते हैं कि, 'फिर कभी, अभी नहीं मिलेंगे। इस दिवाली के बाद ।' ऐसा भी कहता हूँ ।
प्रश्नकर्ता : मतलब पार्शियल ( अंशतः ) सिद्धांत का माना और पार्शियल मन का माना, तब उसका समाधान हुआ न?
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं। वह सिद्धांत को नुकसान नहीं पहुँचाता हो, तो ऐसी बातों में उसे ज़रा नोबिलिटी चाहिए। वहाँ नोबल रहना चाहिए हमें ।
तुम्हें क्या लगता है इसमें? तुम्हारा निश्चय मन से किया हुआ है या समझसहित ?
प्रश्नकर्ता : मन से ही किया है।
दादाश्री : ज्ञान है, इसलिए हो सकता है। वर्ना मैं तुम्हें कहता ही नहीं न! कुछ भी नहीं बोलता । ज्ञान नहीं होता तो मैं तुम से इस सिद्धांत की बात ही नहीं करता । हो ही नहीं सकता इंसान से ।
निश्चय, ज्ञान और मन के
प्रश्नकर्ता : मन के आधार पर किया हुआ निश्चय और ज्ञान से किया हुआ निश्चय, उसका डिमार्केशन (भेद) कैसे हो सकता है ?
दादाश्री : ज्ञान से किए हुए निश्चय में तो बहुत सुंदर हो सकता है। वह तो बहुत अलग चीज़ है । मन के साथ कैसे व्यवहार