________________
'खुद' अपने आपको को डाँटना (खं-2-६)
१७७
वह निउँपाधिपद, परमानंदी पद दिया है, वही मेरा स्वरूप है।
थोड़ा-थोड़ा चंद्रेश को भी डाँटता रह। तुझे डाँटनेवाला कोई नहीं है। तुझे कोई डाँटे तो उसे तू काट खाए ऐसा है। तुझे धौल मारने की आदत है न? तो कहना, 'चंद्रेश, तुझे धौल मारूँगा अब तो! कुछ भी अंदर ऐसा लगे, वह विषय विकारी विचार तो समझ लेना कि यह चंद्रेश है, मैं नहीं। कुछ भी बदलाव हो, वह चंद्रेश है, तुम नहीं। तुम में तो हो ही नहीं सकता न! ।
प्रश्नकर्ता : खुद के सभी दोष जल्दी निकल जाएँ, उसके लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : भला जल्दी कहीं होता होगा? एक दोष है, जो जल्दी निकाल देने जैसा है। वह तो भाँति से यह दोष उत्पन्न होता है, सिर्फ विषय विकार ही। अन्य सभी दोष तो अपने आप टाइम पर ही जाएँगे, एकदम जल्दी नहीं जाएँगे। यह विषय विकार तो सिर्फ एक तरह की भाँति है।
प्रश्नकर्ता : ऐसी श्रद्धा बैठ गई है कि इसमें से पार उतर जाएँगे।
दादाश्री : बैठ जाती है। निकल पाओगे ऐसा करते-करते। दस साल बिता दिए न तो फिर ऐसा होने पर अलग ही तरह की हवा आएगी। अभी खाड़ी में हैं इसलिए लगता है ऐसा। खाड़ी में से बाहर निकले तो फिर निश्चिंत। बीमारी निकली है न, इसलिए घबराहट होगी ज़रा। लेकिन रौब जमाना, चंद्रेश पर 'अपने आपको क्या समझता है?' लेकिन मुझसे पूछकर डाँटना, हाँ! वर्ना ब्लड प्रेशर पर असर हो जाएगा। फिर यहाँ से छूटे कि खुद स्वस्थ। फिर दूसरी उलझनों को उलझन मत मानना। हम इशारा करेंगे तुम्हें, हम जानते हैं कि तुम युवा हो।
साथ मिलकर काम करे तो वहाँ वह भागीदार, ज़िम्मेदारी से काम करते हैं। भागीदारी में मिलकर वे जो काम करते हैं,