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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
चढ़ती है, और यह तो हाथ लगाते ही चढ़ जाता है। शराब तो, पीने के आधे घंटे बाद अंदर मन में असर होता है जबकि इसमें तो हाथ लगाया कि तुरंत ही अंदर चढ़ जाता है। तुरंत ! देर ही नहीं लगती इसलिए हमें तो बचपन से ही, यह अनुभव देखते ही घबराहट हो गई थी कि 'अरेरे, यह क्या हो जाता है ? यह तो इंसानियत मिटकर हैवानियत हो जाती है । ' इंसान - इंसान से मिटकर हैवान बन जाता है। थोड़ी देर बाद यदि इंसानियत रहती तो हर्ज नहीं था। यानी कि थोड़ा बहुत भी अगर अपना कुछ रहता, मज़ा - मर्यादा में, तो हर्ज नहीं था, लेकिन यह तो मर्यादा ही नहीं रहती और हम तो अनंत जन्मों से ब्रह्मचर्य के रागी, इसलिए हमें यह अच्छा नहीं लगता था लेकिन मजबूरन यह सब हुआ था। थोड़ा बहुत संसार भोगा होगा, वह भी मजबूरन । अरुचिपूर्वक, प्रारब्ध में लिखा हुआ! शोभा नहीं देता यह तो ! इसलिए तुम महापुण्यशाली हो कि तुम्हें दादा से ब्रह्मचर्यव्रत मिला।
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दादा का आधार और ऊपर से यह ज्ञान । यदि यह ज्ञान नहीं होता न, तो ब्रह्मचर्य टिक नहीं सकता था। यह ज्ञान, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' यह भान हुआ है, इसलिए ब्रह्मचर्य टिक सकता है और वास्तव में ब्रह्मचर्य कब टिकेगा, जब वहाँ रहने की अलग व्यवस्था हो जाएगी, तब। उसके बाद फिर थोड़े समय में उनके रहने की अलग व्यवस्था हो ही जाएगी और तभी खरा ब्रह्मचर्य और तभी चेहरे पर नूर आएगा। तब तक तो यह आबो-हवा, वातावरण असर करता रहेगा।
प्रश्नकर्ता : वह जो स्पर्श की बात की है न, तो वैसा ही बर्तता है, तो फिर क्या करना चाहिए ? उसका उपाय क्या है ? यानी इस स्पर्श में सुख नहीं है, ये सभी बातें खुद जानता है, फिर भी वर्तन में जब स्पर्श होता है, तब उसमें सुख आता है।
दादाश्री : वह आएगा लेकिन उसे तो तुरंत निकाल देना है न, तुम्हें क्या ? वह सुख आया, वह तो इसलिए कि अपनी