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दृढ़ निश्चय पहुँचाए पार (खं-2-३)
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दादाश्री : वह तो अगर एक बंदर कूदे तो फिर दूसरा भी कूदता है। ऐसे एक बार देख ले तो फिर उसे कूदने की हिम्मत आती है। ऐसा करते-करते मनोबल बढ़ता जाता है, लेकिन जिसने देखा ही नहीं हो, वह कैसे कूदेगा?
प्रश्नकर्ता : तो अगर ये बातें सुनेगा तो कूदेगा?
दादाश्री : लेकिन वह तो साथ ही उसकी खुद की अंदर इच्छा हो, खुद की भावना ऐसी हो, तब ऐसी मज़बूती आ पाएगी।
प्रश्नकर्ता : भावना तो मेरी ऐसी ही है।
दादाश्री : वह अपने आप ही मज़बूत हो जाएगा। एक तरफ बाड़ बनाएँ और उस ओर की बाड़ में सियार छेद कर दें, और उन्हें अगर हम नहीं भरें तो क्या होगा? वह तो पीछे के सभी 'होल' भरते जाना चाहिए न? और नई बाड़ बनाते जाना पड़ेगा। भावना इतनी मज़बूत हो तो सबकुछ हो सकता है।
प्रश्नकर्ता : पिछले होल भरना अर्थात प्रतिक्रमण करके ही
न?
दादाश्री : प्रतिक्रमण तो करने ही हैं, लेकिन अभी तो कमज़ोरियाँ जानी चाहिए न? मन मज़बूत होना चाहिए न? उस तरफ दृष्टि भी नहीं जाए, ऐसा होना चाहिए। मन में तय किया हो कि उस ओर देखना ही नहीं है तो फिर देखेगा ही नहीं वह ! फिर पीछे से भूतों की तरह कितना भी चिल्लाए, लेकिन फिर भी उस तरफ देखेगा ही नहीं, वह घबराएगा ही नहीं न! उस तरह का मनोबल दिन-ब-दिन विकसित होता जाए, तो ठीक है!
प्रश्नकर्ता : वैसी इच्छा तो अंदर से बिल्कुल भी नहीं होती।
दादाश्री : वह तो ऐसा लगता है। दो दिन के लिए ऐसा लगता है। लेकिन वह बात तो, जब एक साथ दस साल का