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दृढ़ निश्चय पहुँचाए पार (खं-2-३)
१२५ प्रश्नकर्ता : अब मुझे ऐसा लग रहा है कि शक्ति तो है
ही।
दादाश्री : और सारी शक्ति होती तो है, लेकिन वह उत्पन्न नहीं हुई है न?!
प्रश्नकर्ता : तो वह शक्ति उत्पन्न कैसे होगी?
दादाश्री : वह तो रात-दिन उसी के विचार हों, उसी पर विचारणा करता रहे और उसमें कितना आराधन करने योग्य है
और वह कितना करने योग्य है, तुरंत अंदर जैसे-जैसे हमें विचारणा हो न, वैसे-वैसे खुलता जाएगा।
प्रश्नकर्ता : यानी इसका मीनिंग यही हुआ न कि कुछ भी करके यह व्यवहार खत्म कर देना चाहिए।
दादाश्री : इसलिए वे थ्री विज़न इस्तेमाल करते हैं न? और सोचा हुआ होगा तो थ्री विज़न भी इस्तेमाल नहीं करना पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता : दिन भर के जो व्यवहार हैं, वे व्यवहार आवश्यक हैं। वही उसकी प्रगति में अंतरायरूप हैं न अभी, क्योंकि उसे सोचने का टाइम ही नहीं मिलता।
दादाश्री : इसलिए इसके बजाय, सबसे अच्छा यह है, कि अपनी दृष्टि कहीं पर भी चिपके, तो उखाड़ देना और प्रतिक्रमण कर लेना, बस।
प्रश्नकर्ता : उसके बाद मन कब तक इस एक ही सिद्धांत पर चलेगा? मन एक सिद्धांत पर कन्टिन्युअस नहीं चलता। बारबार दृष्टि बिगड़ती है और प्रतिक्रमण करना या यह करना, यह सिद्धांत कन्टिन्युअस नहीं चलता। थ्री विज़न भी एट-ए-टाइम नहीं चलता। कन्टिन्युअस रहना चाहिए और जब विस्तार से उसे समाधान हो, तब वह आगे बढ़ता है।
दादाश्री : वह विस्तार से सप्लाइ भी करना पड़ता है। अपने