________________
१२९
दृढ़ निश्चय पहुँचाए पार (खं-2-३) है, यों ऐसे अंतराय-वंतराय ढूँढने से कहीं आनंद रहता होगा?
प्रश्नकर्ता : दूसरे उपाय भी साथ में हैं ही न! फिर थ्री विज़न के अलावा भी उपाय हैं ही न, प्रतिक्रमण है, वह सब...
दादाश्री : प्रतिक्रमण तो मन से गलती हो गई हो तो वर्ना प्रतिक्रमण की भी क्या ज़रूरत है? निश्चय अर्थात उसे कोई डराता नहीं है। यह सब तो जिसका ठिकाना नहीं हो, उसके लिए यह सब है। ये दूसरे उपाय क्यों ढूँढते हैं। निश्चय मतलब निश्चय! जिसे शादी नहीं करनी है, उसे तय कर लेना चाहिए कि मुझे शादी करनी ही नहीं है। फिर कौन शादी करवाएगा? और जिसे शादी करनी है, उसे व्यर्थ में हाय-हाय करने की ज़रूरत नहीं है, शादी करके बैठ जाना। दही में और दूध में पैर नहीं रखना है किसी को भी।
जिसका ऐसा निश्चय है कि कुएँ में गिरना ही नहीं है, वह यदि चार दिन से सोया नहीं हो और उसे कुएँ की दीवार पर बिठा दिया जाए, फिर भी नहीं सोएगा वहाँ।।
प्रश्नकर्ता : वहाँ तो प्रत्यक्ष दिखता है न कि गिर जाऊँगा यहाँ।
दादाश्री : हाँ, तो ऐसे प्रत्यक्ष से भी बुरा है यह तो। यह तो कितनी बड़ी खाई है! अनंत जन्मों के लिए जंजाल लिपट जाता है। अर्थात मन मज़बूत हुआ होगा तो हो सकता है, वर्ना यों तो नहीं हो पाएगा। यों कच्चे मन से ऐसे, ये धागे सिलाई के लिए नहीं है। कैसा स्ट्रोंग होना चाहिए कि मर जाऊँ लेकिन छूटे नहीं।
तेरा निश्चय मज़बूत है न!
प्रश्नकर्ता : एकदम स्ट्रोंग। स्ट्रोंग-स्ट्रोंग कहने से भी स्ट्रोंग हो जाता है!