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किस समझ से विषय में... (खं-2-1)
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पूरे दिन मार भी इसी की वजह से पड़ती है। उसमें भी यदि इन्द्रियों को अच्छा लगे वैसा हो तो ठीक है, लेकिन यह तो एक भी इन्द्रिय को अच्छा नहीं लगता।
प्रश्नकर्ता : चित्त अभी भी खिंच जाता है, दृष्टि बिगड़ जाती
दादाश्री : अपनी बहन हो, वहाँ किस तरह देखते हो? प्रश्नकर्ता : वहाँ तो कुछ नहीं होता।
दादाश्री : क्यों? वह भी स्त्री ही है न? वहाँ पर क्यों विकार नहीं होता? उसके प्रति विचार क्यों नहीं बिगड़ते होंगे? क्या बहन स्त्री नहीं है?
प्रश्नकर्ता : परमाणुओं का असर रहता होगा, इसलिए?
दादाश्री : यह तो जहाँ पर भाव किए हों, वहीं अपनी दृष्टि बिगड़ती है। बहन पर कभी भी भाव नहीं किया था, इसलिए दृष्टि भी नहीं बिगड़ती और कुछ लोगों ने बहन पर भी भाव किए हों तो वहाँ पर भी दृष्टि बिगड़ती है!
प्रश्नकर्ता : फिर भी, यों व्यवहार में जब स्त्री के संयोग मिलते हैं, तब यों नज़र पड़ ही जाती है।
दादाश्री : नज़र पड़ जाना तो स्वाभाविक है। उसमें पिछले जन्म का दोष है लेकिन अब हमें क्या करना चाहिए? नज़र पड़ जाए, उसमें तो किसी का कुछ नहीं चलता। तुम भले ही कितना भी पकड़कर रखो, फिर भी आँखों का स्वभाव है देखना, वह देखे बिना रहेगी ही नहीं। हिसाब है, इसलिए देखे बिना रहेगी नहीं।
प्रश्नकर्ता : ऐसा दिन में दो-चार बार हो जाता है। दोचार बार। तब ऐसा लगता है कि यह कुछ ठीक नहीं हो रहा
है।