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किस समझ से विषय में... (खं-2-1)
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तो पहले के थोड़े बहुत विचार आएँगे लेकिन वे विचार बहुत स्पर्श नहीं करेंगे। जहाँ पर हिसाब नहीं है, उसका जोखिम नहीं है। वह तो अगर लिंक जारी रहे तो उसका जोखिम आता है। इंसान को तो कभी यों ही खुद की माँ के प्रति भी विषय का विचार आ जाता है लेकिन लिंक नहीं होती, इसलिए फिर गायब हो जाता है।
विषय का ज़रा सा भी ध्यान करे तो ज्ञान भ्रष्ट हो जाता है। ‘हतो भ्रष्ट, ततो भ्रष्ट' हो जाता है। जलेबी का ध्यान करने से वैसा नहीं होता। इस योनी के विषय का ध्यान करने से वैसा हो जाता है।
हार-जीत, विषय की या खुद की? हमने तो कई जन्मों से भाव किए थे। इसलिए हमें तो विषय के प्रति बहुत ही चिढ़। ऐसा करते-करते वे छूट गए। विषय हमें मूलतः अच्छा ही नहीं लगता था लेकिन क्या करें? कैसे छूटें? लेकिन हमारी दृष्टि बहुत गहरी, बहुत विचारशील, यों कैसे भी कपड़े पहने हों, फिर भी सबकुछ आरपार दिखता था, दृष्टि की वजह से यों ही चारों ओर का बहुत कुछ दिखता था। इसलिए राग नहीं होता न? हमें और क्या हुआ कि आत्मसुख प्राप्त हुआ। जलेबी खाने के बाद चाय फीकी लगती है। उसी तरह जिसे आत्मा का सुख प्राप्त हो गया, उसे सभी विषयसुख फीके लगते हैं। तुझे फीका नहीं लगता? जैसा पहले लगता था, वैसा अब नहीं लगता न?
प्रश्नकर्ता : फीका तो लगता है, लेकिन वापस मोह उत्पन्न हो जाता है।
दादाश्री : मोह तो उत्पन्न हो सकता है। वह तो कर्म का उदय होता है। कर्म बंधे हुए हैं, वे मोह उत्पन्न करवाते हैं लेकिन आपको क्या ऐसा लगता है कि खरा सुख तो आत्मा में ही है?